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आराधनासार-१६४
प्रागुक्तलक्षणशून्यतापरिणतः आत्मा शुद्ध एव भावो भवति स शुद्धभावः किमाख्यो भवत्तीत्यावेदयति;
जो खलु सुद्धो भावो सो जीवो चेयणावि सा उत्ता । तं चेव हवदि णाणं सणचारित्तयं चेव ।।७९।।
यः खलु शुद्धो भाव: स जीवश्चेतनापि सा उक्ता ।
तच्चैव भवति ज्ञानं दर्शनचारित्रं चैव ।।७९॥ जो खलु सुद्धो भावो यः खलु निश्चयेन शुद्धो रागद्वेषमोहादिदोषोज्झितः भावो भवति स एव भावो जीव; चतुर्भिर्द्रव्यभावप्नाणैः पूर्वमजीवत संप्रति जीवति अग्रे च जीविष्यति इति जीवः ज्ञानदर्शनोपयोगमयः तथा चेयणावि सा उत्ता स एव भावः सा जगत्प्रसिद्धा चेतना उक्ता प्रतिपादिता । स एव भात्र तं चेव हवदि इत्यादि तत् विशुद्ध ज्ञानं दर्शनं चारित्रं भवति । यदुक्तम्
तदेकं परमं ज्ञानं तदेकं शचिदर्शनम्। चारित्रं च तदेकं स्यात्तदेकं निर्मलं तपः।। नमस्यं च तदेवैकं तदेवैकं च मंगलम् ।
उत्तमं च तदेवैकं तदेव शरणं सताम् ।। अनुच- आक्रामन्नविकल्पभावमचलं पक्षनयाभ्यां विना,
सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम् ।
उपरि कथित लक्षण वाली शून्यता से परिणत आत्मा ही शुद्ध भाव है, वे शुद्धभाव किस नाम वाले होते हैं, उसका आवेदन (कथन) करते हैं
जो जीव का शद्धभाव है वही जीव है, वह शद्ध भाव ही चेतना शब्द से कहा जाता है और वह शुद्ध भाव ही ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र स्वरूप है।।७।।
जो निश्चय से रागद्वेष-मोहादि दोषों से रहित शुद्धभाव होता है वहीं भाव जीव है। वह इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, बल, आयु रूप चार द्रव्य प्राणों से जीता था, जी रहा है और जीयेगा, ऐसा ज्ञान दर्शन उपयोगमय भावप्राण वाला जीव है। वह शुद्ध भाव ही जगत् प्रसिद्ध चेतना है। वह शुद्धभाव ही विशुद्ध दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र है। कहा भी है
वह शुद्ध भाव ही एक परम ज्ञान है, वह शुद्ध भाव ही पवित्र दर्शन है, वहीं एक (अद्वितीय) चारित्र है वही एक निर्मल तप है। वह शुद्ध भाव ही एक नमस्कार करने योग्य है, वह शुद्ध भाव ही परम मंगल है, वह शुद्ध भाव ही उत्तम है और वह शुद्ध भाव ही सज्जन पुरुषों के लिए शरण है। और भी कहा है
नय पक्षों से रहित, अचल, निर्विकल्प भाव को प्राप्त जो समय (आत्मा) का सार प्रकाशित है वा दृष्टिगोचर हो रहा है, वह यह समयसार निभृत निश्चल आत्मलीन पुरुषों के द्वारा, स्वयं आस्वाद्यमान है