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आराधनासार १६३
इत्यादिगुणोपेतो यातापि नास्ति तथा यत्र णेव चिंतणं किंपि नैव किंतत् । चिन्तनं शुक्लकृष्णरक्तपीतादिकमन्यदपि शत्रुत्रधादिकं स्त्रीराजवश्यादिकं वा चिन्तनं नास्ति । तथा ण य धारणा यत्र धारणापि नास्ति कालांतरादविस्मरणं धारणं तन्नास्तीत्यर्थः तथा वियण्णो असंख्येयलोकप्रमाणो विकल्पोपि नास्ति तच्छून्यं ध्यानं अर्थान्निर्विकल्पसमाधिलक्षणं ध्यानं निःसंदेह भावयेरिति । ईदृग्विधशून्यतापरिणतो ध्याता नयपक्षपातोज्झितः स्वरूपगुप्तो भवति । यश्च स्वरूपगुप्तः स परमानंदामृत्तमेवास्वादयति । यदुक्तंय एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसंति नित्यम् । विकल्पजालच्युतशांतचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति ॥
अनुच -
अखंडितमनाकुलं ज्वलदनंतमंतर्बहि
महः हः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा । चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालंबतो
यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्लीलायितम् ॥
विशेषणों वाला लोक धावा होता है। परन्तु जिए अवस्था में ध्याता का भी विचार नहीं है जिसमें शुक्ल, पीत, रक्त कृष्णादि का शत्रु के बधबन्धनादिका तथा स्त्री या राजा की अधीनता आदिका चिन्तन नहीं है। कालान्तर में नहीं भूलना' रूप धारणा भी जिस अवस्था में नहीं है तथा असंख्यात लोक प्रमाण जो मानसिक विकल्प हैं ने भी जिस अवस्था में नहीं हैं अर्थात् जो निर्विकल्प समाधि लक्षण ध्यान है, उसे शून्य ध्यान समझो और हे क्षपक ! निस्संदेह उसी की भावना करो। इस प्रकार का ध्याता नयपक्ष से रहित होता है, स्व-स्वरूप में लीन होता है। जो स्वरूप गुप्त होता है, बही ध्याता परमानन्द अमृत का आस्वादन करता है। सोही समयसार में अमृतचन्द्र आचार्य ने कहा है
कलश
"जो ज्ञानी नयपक्षपात को छोड़कर सदा स्वरूप में (अपने स्वरूप में) गुम होकर निवास करते हैं, जिनका चित्त विकल्पजाल से रहित शांत हो गया है, वे ही ज्ञानी मानव साक्षात् अमृत (स्वानुभव रूप सुधारस ) का पान करते हैं।"
जब तक कुछ भी पक्षपात रहता है तब तक चित्त का क्षोभ नहीं मिटता । जन्न नय सम्बन्धो पक्षपात वा विकल्प दूर ही जाता है तब वीतराग दशा को प्राप्त होकर स्वरूप में प्रवृत्ति होती है और अतीन्द्रिय सुख का अनुभव होता है।
समयसार कलश में कहा भी है
जैसे नमक की डली एक क्षाररस की लोला का अवलम्बन करती है, वैसे ही यह आत्मतेजप्रकाश (ज्ञान) ज्ञेयाकार में खण्डित नहीं होता, इसलिए अखण्डित है। कर्मों के निमित्त होनेवाली आकुलता से रहित होनेसे अनाकुल हैं । अंतरंग में प्रत्येक प्राणी को अहं प्रत्यय ( चैतन्त्र स्वभाव) से अनुभव में आ रहा है और बाह्य में वचन एवं काय की क्रिया से देदीप्यमान है। जिसका सहज विलास सदा उदयरूप है और सदा काल चैतन्य भावों से परिपूर्ण है- अर्थात् चैतन्य भावों से उछल रहा है। ऐसे अखण्डित, अनाकुल, अंतरंग एवं बाह्य में देदीप्यमान सहज चैतन्य के उद्विलास से युक्त और नमक की डली के समान सर्वांग रूपसे, चैतन्य रूप से परिपूर्ण है ऐसे तेजपुंज ज्ञान का सदा काल अनुभव करो। अर्थात् यह ज्ञानानन्दमय एकाकार अखण्ड ज्ञानस्वरूप ज्योति हमें सदा प्राप्त हो ॥ ७८ ॥