________________
आराधनासार १६२
तच्छून्यध्यानमिह गृह्यते । पुनः कीदृशो योगी । ससहावसुक्खसंपण्णो स्वसद्भावसौख्यसंपन्नः स्वस्य परमात्मनो यः सद्भावोऽनंतज्ञानपरमानंदादिलक्षणः स्वसद्भावस्तदुत्थं यत्सौख्यं स्वसद्भावसौख्यं तेन संपन्नः संयुक्तः स्वसद्भावसौख्यसंपन्नः । कीदृशो योगी । परमाणंदे थक्को परमानंदे स्थितः परमश्चासावानंदश्च परमानंदस्तस्मिन् परमानंदे स्थितः विशुद्धतरपरब्रह्माराधनोद्भूतस्फीतानंदामृतरसतृप्त इत्यर्थः । अत एव क्षपकः भरियावत्थो फुडं हवइ पूर्णकलशवत् भृतावस्थः अविनश्वरनिरुपमानंदसुधारससंभृतः स्फुटं निश्चितं भवतीत्यर्थः । एवं ज्ञात्वा विषयशून्यं ध्यानमवलंब्य स्वात्माराधनीयोऽनंतसौख्यं प्राप्नेति ॥ ७७ ॥
अधुना शून्यध्यानलक्षणमाह
जत्थ ण झाणं झेयं झायारो णेव चिंतणं किंपि । णय धारणा वियप्पो तं सुण्णं सुठु भाविज्ज ॥ ७८ ॥
यत्र न ध्यानं ध्येयं ध्यातारो नैव चिंतनं किमपि । न च धारणा विकल्पस्तं शून्यं सुहु भावयेः ॥ ७८ ॥ भविष्य शूर्य बुकु अतिवेन भाव
भो क्षपक तं सुणं जानीया इति भावार्थ: । तत् किं । यत्र आर्तरौद्रधर्मशुक्ल भेदाच्चतुर्विकल्पं ध्यानं नास्ति जिनसुगतहरब्रह्मभेदाद्यनेकविकल्पं ध्येयं च नास्ति तथा झायारो
शुचिः प्रसन्नो गुरुदेवभक्तः सत्यव्रतः शीलदयासमेतः । दक्षः पटुर्बीजपदावधारी ध्याता भवेदीदृश एव लोके ।
यहाँ पर शून्य ध्यान का अर्थ निर्विकल्प समाधि ग्रहण करना चाहिए। निर्विकल्प समाधिस्थ योगी अनन्त ज्ञानादि परमानन्द लक्षण स्वसद्भाव से उत्पन्न सुख से सम्पन्न होता है और विशुद्धतरपरम ब्रह्म की आराधना से उत्पन्न महानन्द अमृत रस में तृप्त होता है। वह अविनश्वर निरुपम आनन्द सुधारस से परिपूर्ण अवस्था वाला होता है। अर्थात् निर्विकल्प समाधि में लीन होने वाला योगी अनन्त चतुष्टय रूप अरहन्तावस्था और सिद्ध अवस्था के आनन्द का भोक्ता बनता है। ऐसा जानकर अनन्त अविनाशी सुख की प्राप्ति के इच्छुक क्षपक को पाँचों इन्द्रियों के विषयों से पराङ्मुख हो कर निर्विकल्प समाधिलक्षण शून्य ध्यान का अवलम्बन लेकर स्व-शुद्धात्मा की आराधना करनी चाहिए || ७७ ||
अब शून्यध्यान का लक्षण कहते हैं
जिसमें ध्यान, ध्येय और ध्याता का विकल्प नहीं है, जिसमें किसी प्रकार का चिन्तन नहीं है और जिसमें धारणा का विकल्प नहीं है, उसकी तुम भली प्रकार से भावना करो ।।७८ ।। हे क्षपक ! जहाँ आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल के भेद से चार प्रकार का ध्यान नहीं है, जिन, बुद्ध, शिव, ब्रह्मा, विष्णु आदि अनेक प्रकार के ध्येय का विकल्प नहीं है। तथा ध्याता
"शुचि, प्रसन्नवदन, गुरु देव (देव, शास्त्र, गुरु) का भक्त, सत्यव्रत का धारी, शील- दया आदि से युक्त, चतुः ध्यान के स्वरूप को जानने में दक्ष, बीज पद (बीजाक्षरों) की अवधारणा करने वाला, इन