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आराधनासार १६५
विज्ञानैकरसः स एष भगवान् पुण्यः पुराणः पुमान्, जानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनैकोप्ययम् ॥
यः खलु शुद्धो भावः स एव रत्नत्रयमित्याचष्टे -
भिण्णा ।
हु
दंसणणाणचरिता णिच्छयवाएण हुंति ण जो खलु सुद्धो भावो तमेव रयणत्तयं जाण ॥ ८० ॥
दर्शनज्ञानचारित्राणि निश्चयवादेन भवंति न हि भिन्नानि । यः खलु शुद्धो भावस्तमेव रत्नन्नयं जानीहि ॥ ८० ॥
भो क्षपक ! दंसणणाणचरिता दर्शनं च ज्ञानं च चारित्रं च दर्शनज्ञानचारित्राणि णिच्छ्यवाएण निश्चयवादेन निश्चयनयापेक्षया हुंति ण हु भिण्णा हु स्फुटं भिन्नानि परमात्मनः स्वरूपात् पृथग्भूतानि न भवंति । यदुक्तम्
आत्मनि निश्चयबोधस्थितयो रत्नत्रयं भवक्षतये । भूतार्थपथप्रस्थितबुद्धेरात्मैव तत्रितयम् ॥
कथमपि समुपात्तत्रत्वमप्येकताया अपतितमिवात्मज्योतिदुद्गच्छदच्छम् । सततमनुभवामोऽनंतचैतन्यचिह्नं
न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ॥
(अनुभव में आ रहा है) वह विज्ञान ही जिसका रस है ऐसा भगवान है, वह विज्ञानरस शुद्ध आत्मा ही पवित्र पुराण पुरुष है- वही दर्शन है, वही ज्ञान है, अधिक क्या कहें? जो कुछ अनन्त ज्ञानादि गुणरूप है यह समयसार ( शुद्धात्मा) ही है। वह अद्वितीय है । ( मात्र भिन्न-भिन्न नामों से कहा जाता है)
निश्चय से आत्मा का जो शुद्ध भाव है वही रत्नत्रय हैं, सो कहते हैं
" निश्चय नय से दर्शन, ज्ञान और चारित्र आत्मा से भिन्न नहीं हैं। इसलिए जो आत्मीय शुद्ध भाव है उसको ही रत्नत्रय समझो ॥ ८० ॥
निश्चय नथ की अपेक्षा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र परमात्मा के स्वरूप से पृथक्भूत नहीं हैं, कहा भी है
"आत्मा में निश्चय ज्ञान की स्थिति है, ज्ञान की स्थिरता है वहीं संसार का नाश करने के लिए रत्नत्रय है । भूतार्थ पथमें (निश्चयनय में) स्थित बुद्धि वाले के लिए आत्मा ही दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों रूप है । " किसी कारण (व्यवहार नय) से तीन प्रकार को अंगीकार करनेपर भी जो एकत्व से कभी च्युत नहीं
है ऐसी जो निर्मलता को प्राप्त, अनन्त (अविनाशी ) चैतन्य चिह्न वाली इस आत्मज्योति का हम निरंतर अनुभव करते हैं, उसी का हम रसास्वादन करते हैं क्योंकि ऐसी शुद्ध आत्म ज्योति के अनुभव के बिना निश्चय से साध्य की सिद्धि नहीं होती ।