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आराधनासार -१५९
क्षपकस्य परमात्मसद्भावशून्यत्वे दूषणमाह
तणुमणवयणे सुण्णो ण य सुण्णो अप्पसुद्धसब्भावे। ससहावे जो सुण्णो हवइ वसो गयणकुसुमणिहो ॥७६ ॥
तनुमनोवचने शून्यो न च शून्य आत्मशुद्धसद्भावे।
स्वसद्भावे यः शून्यो भवति वशो गगनकुसुमनिभः ।।७६ ।। क्षपको ध्याता सण्णो शून्यो भवतु । कस्मिन् शन्यो भवतु। तणुमणवयणे तनुः शरीरं मनश्चित्तं वचनं प्रतीतं तनुश्च मनश्च वचनं च तनुमनोवचनं तस्मिन् तनुमनोवचने। इदं शरीरादिकं मदीयमिति परिछिनति। अथवा तनुक्रिया शुभरूपा देवार्चनादिका अशुभरूपा प्राणिहननादिका, मन:क्रिया शुभरूपा देवगुरुगुणस्मरणादिका अशुभरूपा वधबंधन-चिंतनादिकाः, वचनक्रिया: शुभरूपा देवगुरुस्तुत्यादिका: अशुभरूपा मिथ्याभाषणादिका इत्येतामु शून्यः । यदुक्तं
आस्तां बहिरुपधि च यस्तनुवचनविकल्पजालमप्यपरम् । कर्मकृतत्वान्मत्त: कुतो विशुद्धस्य मम किंचित् ।। कर्मणो यथास्वरूपं न तथा तत्कर्म कल्पनाजालम् । तत्रात्ममतिविहीनो मुमुक्षुरात्मा सुखी भवति ॥
जिस प्रकार क्षपक मन, वचन, काय की क्रिया से शून्य हो जाता है वैसे आत्मा के शुद्ध स्वभाव के सद्भाव से शून्य नहीं होता है। क्योंकि यदि ध्याता क्षपक स्व स्वभाव से शून्य हो जाता है तो आकाश के फूल के समान मिथ्या वा असत् रूप हो जायेगा 11७६ ।।
यह शरीर, वचन और मन भेग है ऐसी ज्ञप्ति (ज्ञान) होना। अथवा देवपूजा, गुरु उपासना आदि कायिक क्रिया शुभ है, प्राणियों को मारना आदि अशुभ है। देव, शास्र, गुरु आदि के गुणों का स्मरण करना मानसिक शुभ क्रिया है और राग-द्वेष के वशीभूत होकर किसी के वध, बंधन, आदि का चिन्तन करना अशुभ क्रिया है। देव, शास्त्र, गुरु की स्तुति करना वाचनिक शुभ क्रिया है और मिथ्या भाषण, निन्दा आदि करना अशुभ वचन क्रिया है। इन क्रियाओं से ज्ञानधारा का शून्य हो जाना निर्विकल्प ध्यान है। कहा भी है
"बाह्य उपाधिरूप मन, बचन और काय के विकल्प जाल तो दूर रहो परन्तु कर्मकृत होने से विभाव भाव मुझ शुद्धात्मा के कैसे हो सकते हैं? अर्थात् मन, वचन और काय का समूह तथा कर्मकृत विभाव भाव आदि मुझ विशुद्धात्मा के कुछ भी नहीं हैं । कर्मों का यथार्थ स्वरूप और उन कर्मों के उदय से उत्पन्न विभावों का विकल्प जाल कुछ भी मेर। नहीं है, मैं विशुद्धात्मा हूँ। ये विकल्पजाल मेरे हैं," इस प्रकार की बुद्धि से जो विहीन है, रहित है वही मुमुक्षु आत्मा सुखी होता है। कर्मजाल से रहित शुद्धात्म तत्त्व को प्राप्त हो जाता है।