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आराधनासार ९५४
शक्यते इत्याह
रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम् ।
स पश्यत्यात्मनस्ततः॥ अविक्षिप्तं मनस्तत्त्वं विक्षिप्तं भ्रांतिरात्मनः । धारयेत्तदविक्षिप्तं विक्षिप्तं नाश्रयेत्ततः ॥
ततश्च चेतनाचेतनेषु परद्रव्येषु रागद्वेषौ हित्वा शुभाशुभमनोवचन- कायव्यापाररूपयोगत्रयपरिहारपरिणताभेदरत्नत्रयलक्षणज्ञानबलेन शून्यं विषयविमुखं च मनः कृत्वा यो वीतरागचारित्राविनाभूतशुद्धात्माभिमुख - परिणामस्तिष्ठति स सकलकर्माणि जयतीति भावार्थः ॥ ७६ ॥
यावच्चिदानंदात्मकपरमब्रह्मोपासनवासनाजलेन मनो निश्चलं न विधीयते तावत् कर्मास्रवा वारयितुं न
तणुवयणरोहणेहिं रुज्झति ण आसवा सकम्माणं । जाव ण णिप्फंदकओ समणो मुणिणा सणाणेण ॥ ७२ ॥
तनुवचनरोधनाभ्यां रुध्यते न आस्रवाः स्वकर्मणाम् । यावन्न निष्पदीकृतं स्वमनो मुनिना स्वज्ञानेन ॥ ७२ ॥
जिसका मनरूपी जल रागद्वेष रूपी कल्लोलों से चंचल नहीं है वही आत्मतत्त्व का अवलोकन कर सकता है परन्तु जिनका मन रागद्वेष से चंचल है वे आत्मतत्त्व का अवलोकन नहीं कर सकते ।
मन का विक्षिप्त नहीं होना ही तत्त्व है और मन का विक्षिप्त होना आत्मविभ्रान्ति है। इसलिए अविक्षिप्त मन को धारण करना चाहिए और विक्षिप्त मन का आश्रय नहीं लेना चाहिए। अर्थात् मन की चंचलता के कारणभूत रागद्वेष का त्याग कर उसे निज स्वभाव में स्थिर करना चाहिए।
हे आत्मन् ! जो मानव चेतन एवं अचेतन रूप परद्रव्य सम्बन्धी रागद्वेष को छोड़कर और शुभ एवं अशुभ मन, वचन, काय के व्यापार रूप तीन योगों का परिहार कर अभेद रूप से परिणत रत्नत्रय लक्षण ज्ञान के बल से मन को विषयों से विमुख कर, चंचलता से शून्य कर, वीतराग चारित्र के अविनाभावी शुद्धात्मा के अभिमुख परिणाम में स्थिर होता है; वहीं मानव सकल कर्मों पर विजय प्राप्त करता है अर्थात् सारे कर्मों का विनाश कर स्वकीय शुद्धावस्था को प्राप्त होता है ॥ ७१ ॥
हे क्षपक ! जब तक यह प्राणी चिदानंद आत्मिक परम ब्रह्म की उपासना के बल से स्वकीय मन को निश्चल नहीं करता है, तब तक वह कर्मास्रव को रोकने में समर्थ नहीं होता है, ऐसा आचार्य कहते हैंजब तक मुनिराज स्वकीय ज्ञान के बल से अपने मन को निश्चल नहीं करते हैं तब तक काय और वचन के रोकने मात्र से ही स्वकीय कर्मास्रव का निरोध नहीं कर सकते ।। ७२ ।।