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आराधनासार - १५३
छाने नष्टे सति आसवरोहो आनवनिरोधः कर्मास्रवरोधो भवति उप्पण्णे उत्पन्ने सति उत्पन्नमात्रस्य संकल्पस्यानिषेधे सति कम्मबंधो य कर्मबंधश्च प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशलक्षणात्मको भवति ॥ ७० ॥
यावत्कालं विषयव्यापारपरिणतमंत: करणं तावत्कालं कर्माणि हंतुं न शक्तोस्तीत्यावेदयति
परिहरिय रायदोसे सुण्णं काऊण नियमणं सहसा । अत्थइ जाव ण कालं ताव ण लिहणेड़ कम्माइ ॥ ७१ ॥
परिहत्य रागद्वेषौ शून्यं कृत्वा निजमनः सहसा । तिष्ठति यावन्न कालं तावन्न निहंति कर्माणि ॥ ७१ ॥
अत्थड़ जाव ण कालं यावत्कालं न तिष्ठति यावतं कालं स्वात्माभिमुखपरिणामत्वेन न वर्तते । कोसी क्षपकः । किंकृत्वा न तिष्ठति । परिहरिय रायदोसे परिहृत्य रागद्वेषौ इष्टेषु स्रक्चंदनवनितादिषु प्रीतिः रागः अनिष्टेषु अप्रीतिर्देषः रागश्च द्वेषश्च रागद्वेषौ परितः सर्वप्रकारेण त्यक्त्वा । न केवलं रागद्वेषौ परिहृत्य । सुण्णं काऊण णियमणं सहसा शीघ्रं निजमनः शून्यं च कृत्वा । अत्र मनसः शून्यत्वमेतत् यत् निःशेषविषयविमुखत्वं यच्च चिचमत्कार जिशुद्धपरत्वं परित्य शून्यं च मनः कृत्वा यावत् क्षपको न तिष्ठति । तावत् किं न स्यादित्याह । ताव ण णिहणेड़ कम्माइ तावन्न निर्हति कर्माणि तावतं कालं कर्माणि ज्ञानावरणादीनि न निहन्यात् । इति ज्ञात्वा शुद्धात्मस्वरूपं जिज्ञासुना अलोलं मनः कार्यम् । यदुक्तम्
एक समय में बँधे हुए कर्मों की आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाही होकर रहने की मर्यादा स्थितिबंध है जैसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, बेदनीय, अन्तराय की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण है। नाम, गोत्र की बीस कोड़ा कोड़ो सागर प्रमाण है। आयु की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर है और मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ा कोड़ी सागर है। कर्मों में फलदान देने की शक्ति को अनुभाग बंध कहते हैं और जो एक समय में सिद्धों के अनन्तवें भाग और भव्य राशि से अनन्त गुणी जो कार्माण वर्गणा आती है, वह प्रदेश बंध है । इस प्रकार मानसिक संकल्प विकल्प में चार प्रकार का कर्मबंध होता है | ७० ॥
जब तक विषयव्यापार की परिणति अंत:करण में स्थित है तब तक कर्मों का नाश करने में आत्मा समर्थ नहीं होता है, इसी सम्बन्ध में आचार्य कहते हैं
जब तक यह आत्मा शीघ्र ही रागद्वेष का त्याग करके निज मन को शून्य करके (निर्विकल्प करके) नहीं रहता है, तब तक कर्मों का नाश नहीं कर सकता ॥ ७१ ॥
जो क्षपक इष्ट माला, चन्दन, स्त्री आदि में प्रीति रूप राम और अनिष्ट माला आदि में अप्रीतिरूप द्वेष का त्यागकर अपने मन को शीघ्र ही संकल्पों से शून्य करके, स्वात्माभिमुख परिणामों से जब तक रुव में परिणमन नहीं करता है, स्त्रमन की चंचलता दूर कर अपने में स्थिर नहीं करता है, जब तक पंचेन्द्रियजन्य विषयों से विमुख होकर रागद्वेष से मन को शून्यं करके चित्रमत्कार मात्र निज शुद्धात्म परिणत हो रागद्वेष को छोड़कर स्व में मन को स्थिर नहीं करता है, तब तक जानावरणादि कर्मों का नाश नहीं कर सकता! ऐसा जानकर शुद्धात्म स्वरूप के जिज्ञासु को स्वकीय मन को अडोल अकम्प करना चाहिए. सो ही पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में कहा है