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आराधनासार - १५५
रुज्झंति ण न निरुध्यते न निवार्यन्ते ते आसवा आस्रवा सकम्माणं स्वकर्मणां स्वेन आत्मीयेन जीवेन सहकीभावं गताना ज्ञानावरणाद्यष्टविध-कर्मणा। काभ्यां न निवार्यते। तणुवयणुरोहणेहि तनुवचनरोधनाभ्यां तनुःकाय: वचनं वचः तयोनिरोधने ताभ्यां तनुवचनरोधनाभ्यां 'दुञ्चमणे बहुवयणमिति' प्राकृते 1 अथवा स्वकर्मणामित्यस्य पदस्यायमर्थः। कायेनोपार्जितानि कर्माणि स्वकर्माणि कायकर्माणि वचनेनोपार्जितानि कर्माणि स्वकर्माणि वचनकर्माणि उच्यते । मनोनिरोधेन विना कायनिरोधेन कायकृतानां कर्मणामानवा न निषिध्यंते, वचननिरोधेन वचनकृतानामपि कर्मणामासवा न निषिध्यंते किंतु सर्वकर्मणामास्रवा एकेनैव मनोनिरोधेन निषिध्यंते तस्मादाह जाव ण णिप्फंदकओ यावन्न निष्पंदीकृतं निश्चलीकृतं । किं तत् । समणो स्वमनः स्त्रचित्तं द्रव्यभावरूप। केन। मुणिणा मुनिना महात्मना क्षपकेन। केन निश्चलीकृतं । सणाणेण स्वज्ञानेन स्वसंवेदनज्ञानगुणेन ततो निर्मलचैतन्यस्वभावस्वात्माभिमुखपरिणाममाहात्म्येन दुर्जयमनोजयं कृत्वा कर्माखवा निवारयितव्या इति हेतोर्मनोजय एव श्रेयान् ॥७२ ।। मन:प्रसरे निवारिते सति यत्फलं भवति तदावेदयति
खीणे मणसंचारे तुट्टे तह आसवे य दुवियप्पे । गलइ पुराणं कम्म केवलणाणं पयासेइ ॥७३॥
क्षीणे मनःसंचारे त्रुटिते तथास्रवे च द्विविकल्पे।
गलति पुरातनं कर्म केवलज्ञान प्रकाशयति ॥७३ ।। हे भव्य ! जब तक भच्यात्मा महामुनि क्षपक स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा अपने मन को निश्चल नहीं करता है, निर्विकल्प नहीं करता है, तब तक वचन और काय का निरोध करने पर भी जीव के साथ एकीभाव (एकक्षेत्रावगाह) को प्राप्त, जीव के द्वारा उपार्जित ज्ञानाचरणादि आठ कर्मों का निरोध (संबर) नहीं कर सकता है। अथवा स्वकर्म का अर्थ है काय की चेष्टा से उपार्जित किया हुआ कर्म, कार्यनिरोध से नष्ट नहीं होता और बचन से उपार्जित किया हुआ कर्म, वचन के निरोध से नष्ट नहीं होता है. परन्तु मन के निश्चल (निरोध) हो जाने पर मन, वचन और काय इन तीनों से उपार्जित किए हुए कर्म एक क्षण में नष्ट हो जाते हैं और नवीन कर्मों का आगमन रुक जाता है। इसलिए आत्महित इच्छुक क्षपक को स्वसंवेदन ज्ञान गुण के बल से वा निर्मल चैतन्य स्वभाव स्वात्माभिमुख परिणाम के माहात्म्य से दुर्जय स्वकीय मन को निश्चल करने का अभ्यास करना चाहिए। स्वकीय मन को निश्चल करके कर्मास्रव का निरोध करना चाहिए। सर्वकर्मों के क्षय संवर और निर्जरा का कारण मन को निश्चल करना ही है अत: मन का निरोध करना ही श्रेयस्कर है वा श्रेष्ठ है ।।७२॥
मन का निरोध होने पर जो फल प्राप्त होता है उसको आचार्य सूचित करते हैं
मन के संचार के नष्ट हो जाने पर शुभ, अशुभ वा द्रव्य, भावरूप दो प्रकार का आम्रव रुक जाता है और आम्रव के रुक जाने पर पुराने (पूर्व में बाँधे हुए) कर्म गल जाते हैं, निर्जीर्ण हो जाते हैं और केवलज्ञान प्रकट होता है॥७३॥