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आराधनासार १३४
प्रपंचतः प्रकृष्टोपसर्गान् व्याख्याय संप्रति क्रमायातस्येंद्रियजयस्य प्रपंचयन् गाथापंचकं निरूपयति इति समुदायपातनिका |
तत्रादौ रूपकेण कृत्वा इंद्रियाणां व्याधत्वं समर्थयन् स्मरे शरत्वं विषयेषु वनत्वं जनेषु हरिणत्वं
प्रतिपादयति
इंदियवाहेहिं हया सरपीडापीडियंगचलचित्ता ।
कत्थवि ण कुणति रई विसयवणं जंति जणहरिणा ॥ ५३ ॥
इंद्रियव्याधैर्हता : शरपीडापीडितांगचलचित्ताः ।
कुत्रापि न कुर्वंति रतिं विषयवनं, यांति जनहरिणाः ॥ ५३ ॥
इंदियवाहेहिं इंद्रियव्याधै: इंद्रियाण्येव व्याधा आखेटिका : परनिमित्तसुखरूपपलाभिलाषित्वेन स्वव्यापारे प्रवर्तमानत्वात् । तैरिन्द्रियव्याधैः हया हता घातिताः शल्यगोचरीकृता: सरपीडापीडियंगचलचित्ता शरपीडापीडितांगचलचित्ताः । शरो बाणः । बाणस्थानीयक्षेत्र क इति चेत् । शरशब्देन स्मरो लभ्यते प्रकृलदर्शनावात् स्वर एवं बरः । शब्द एक एवेति चेत् नास्ति दोषः । एकस्मिन्नेव शब्देऽपि मुख्योपचारयोरुभयार्थयोः प्राप्यमाणत्वात् । न भवेदिति चेत् तदा चिंत्यमेतत् दूष्यं वैदुष्यैः । स्मररूपशरस्य पीडा बाधा तथा पीडितांगे बाधितांगे सति चलचित्ता लोलमनसः जणहरिणा जनहरिणाः जना एव हरिणा इस प्रकार उपसर्गों के सहन करने का कथन करके अब क्रम से आगत इन्द्रियविजय का पाँच गाथाओं के द्वारा कथन करते हैं
अब रूपक अलंकार में इन्द्रियों को व्याध (शिकारी), काम को बाण, हरिण की उपमा देकर कथन करते हैं
विषय को वन और मानव को
इन्द्रिय रूपी व्याध के द्वारा मारे गये, काम के बाण की पीड़ा से पीड़ित अंग से चलायमान चित्त वाले मानव रूपी हरिण किसी भी (धार्मिक) कार्य में रति नहीं करते, स्थिर नहीं होते; अपितु विषय रूपी वन में प्रवेश करते हैं ॥ ५३ ॥
परनिमित्त- परपदार्थ के उपभोग से उत्पन्न सुख रूप मांस की अभिलाषा से स्वकीय व्यापार में प्रवर्त्तमान होने से इन्द्रियों को व्याध (शिकारी) कहा है। कामवासना को बाण की उपमा दी है।
उन इन्द्रिय रूपी शिकारी के द्वारा शल्य (लक्ष्य) गोचर किये गए और काम रूपी बाण से अंग के पीड़ित होने से जिनका चित्त चंचल हो रहा है, ऐसे ये संसारी प्राणी रूपी हरिण आर्त्त, रौद्र ध्यान के परिहार करने में निमित्तभूत स्वगत' तत्त्व, परगत तत्त्व, शास्त्रश्रवण (शास्त्रों का श्रवण पठन-मनन ), देव पूजा आदि किसी भी शुभ अवलंबन में प्रीति नहीं करते हैं, शुभोपयोग वा शुद्धोपयोग में स्थिर रहने के लिए समर्थ नहीं होते हैं; कैसे भी शुभ परिणामों में रंजायमान नहीं होते हैं। यह संसारी प्राणी रूपी हरिण अनादिकालीन कर्मबंध से अनन्त वीर्यावरण के कारण स्वकीय अनन्त शक्ति को भूलकर विषयवासना के वन में गमन करता है अर्थात् विषयवासनाओं में पड़ता है।
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१. स्वकीय शुद्धात्मा ।
२. पंचपरमेष्ठी परगत तत्त्व |