________________
आराधनासार-१३३
दोनों पुत्रों ने हाथ जोड़कर विनम्र भावों से कहा-“तात ! आपने आकुलता एवं पाप का कारण समझकर राज्य को छोड़ने का निश्चय किया है, आपके द्वारा वमन किये हुए, छोड़े हुए राज्य को हम स्वीकार नहीं करेंगे। यह राज्य पाप और वैर का कारण है। हम दोनों आपके साथ दिगम्बर मुद्रा ग्रहण करेंगे।"
__जब दोनों पुत्रों ने राज्य स्वीकार नहीं किया तब राजा संजयन्त के पुत्र को राज्यभार देकर दोनों पुत्रों के साथ दीक्षा ग्रहण कर घोर तपश्चरण करने लगे। कुछ दिनों के तपश्चरण के बाद वैजयन्त मुनिराज ने धातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। उनके कंवलज्ञान की पूजा करने के लिए चारों निकाय के देवता गण आये। उन देवताओं के समूह में धरणेन्द्र के अलौकिक रूप को देखकर तत्रस्य जयन्त मुनिराज ने निदान-बंध किया । अर्थात् चारित्र तथा सम्यग्दर्शन से च्युत होकर यह भाव किया कि मेरे इस तपश्चरण के फल से मुझे धरणेन्द्र के समान सौन्दर्य और विभूति प्राप्त हो। निदानबंध के कारण जयन्त मुनिराज मरकर धरणेन्द्र हो गये। ठीक ही है- जिस चारित्र एवं सम्यग्दर्शन के फल से मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है, उससे यदि तुच्छ सांसारिक सुख प्राप्त हो जाये तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है!
संजयन्त मुनिराज एक दिन एक अटवी में कायोत्सर्ग से स्थित होकर शुद्धात्मा का ध्यान कर रहे थे। उनके ऊपर से गमन करते हुए विद्युद्रष्ट नामक विद्याधर का विमान वहीं पर स्थगित हो गया (रुक गया)।
_ विमान को रुका हुआ देखकर आश्चर्यचकित हो उसने नीचे की ओर देखा। तत्रस्थ संजयन्त मुनिराज को देखकर उसने निश्चय किया कि मेरे विमान को इसीने स्तम्भित किया है। उसकी क्रोधाग्नि भभक उठी 1 उसने मुनिराज पर घोरोपसर्ग किया परन्तु संजयंत मुनिराज का मनमेरु अडोल अकम्प रहा। ठीक ही है- प्रलय काल की वायु के झकोरों से मेरु कम्पित नहीं हो सकता।
जब मुनिराज ध्यान से विचलित नहीं हुए तब विद्याधर की क्रोधाग्नि अधिक भभक उठी। उस अधम विद्याधर ने मुनिराज को अपने विद्याबल से उठाकर भारतवर्ष की पूर्व दिशा में बहने वाली भयंकर सिंहवती नामक नदी में डाल दिया। इतनी विपत्तियों से भी उनके दुःखों का अन्त नहीं हुआ। इसलिए तत्रस्थ लोगों ने उनको राक्षस समझकर उन पर पत्थर बरसाना प्रारंभ कर दिया परन्तु इस प्रकार भयंकर कष्ट आने पर भी संजयन्त मुनि ध्यान-मग्न रहे, स्व शुद्ध स्वभाव से चलायमान नहीं हुए। निर्विकल्प समाधि में लीन हो शुक्ल ध्यान के बल से उन्होंने घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया और अंतकृत केवली होकर उसी समय अघातिया कर्मों का नाशकर अविनाशी मोक्षपद प्राप्त कर लिया।
हे आत्मन् ! जैसे संजय-त मुनिराज घोरोपसर्ग आने पर भी स्व स्वभाव से च्युत नहीं हुए, उसी प्रकार तुम भी इन उपसर्गों से वा शारीरिक वेदनाओं से आकुल-व्याकुल होकर अपने स्वभावसे च्युत मत होओ। अपने मनको वश में कर स्वानुभव के रस का आस्वादन करो। शरीर की तरफ लक्ष्य मत दो।
॥ संजयन्त मुनिराज की कथा समाप्त ॥ इस प्रकार आराधनासार में विस्तारपूर्वक घोर उपसर्गों की व्याख्या और उनको सहन करने वाले महापुरुषों के चरित्र का कथन किया। क्योंकि उन महापुरुषों के स्मरण वा ध्यान से आराधक के परिणामों में स्थिरता और उपसर्ग सहन करने की शक्ति का प्रादुर्भाव होता है।