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आराधनासार-१३५
मृगाः कथवि कुत्रापि रई रतिं पण कुणंति न कुर्वन्ति । कस्मिन्नपि स्थाने स्वगततत्त्वे पर-गततत्त्वे वा शास्त्रश्रवणे देवपूजायां आर्तरौद्रपरिहारनिमित्तमन्यस्मिन्नपि शुभावलंबने वा न रज्यंते न स्थितिं कुर्वन्ति स्थातुमपि न वांछतीत्यर्थः । कस्मात् । अनादिकर्मबंधवशादनंतत्रीर्यावरणेनात्पनोऽधैर्यपादुर्भावात् । तदा ते किं कुर्वन्तीति प्रश्ने। विसयवणं जंति विषयवनं यांति विषया एव वन विषयवनं यांति गच्छंति । यथा व्याधेन बाणेन बाधिताः चलचित्ता भूत्वा कुत्रापि रतिमकुर्वाणा मृगा वनमाश्रयंति तथेंद्रियैरमनस्कता नीता स्मरपीडनेन चलचेतसो जाता जनाः कुत्रापि रतिं न कुर्वन्ति । तर्हि किं कुन्ति । स्रक्चंदनवनितादीन् विषयानेव सेवंते येषु सेवितेषु तदलाभे सति इहैव दारुणं दुःखं भवति, परभवे नरकतिर्यग्योन्यादे रि दुःखान्यनुभवंति । एवं ज्ञात्वेंद्रियधिजयं विधाय परमात्मध्वानविधानं विधीयतामिति तात्पर्यम् ॥५३ ।।
ननु समस्तसंन्यस्तत्वेन प्रतिज्ञानिष्ठानां यदि विषयाभिलाषः स्यान्न तु सेवने प्रवृत्तिस्तदा किंचिद्रूपं प्रादुर्भवतीति वदंतं प्रत्याह
सव्वं चायं काऊ विसए अहिलससि गहियसण्णासे । जड़ तो सव्वं अहलं दंसण णाणं तवं कुणसि ॥५४ ।।
सर्वं त्यागं कृत्वा विषयानभिलषसि गृहीतसंन्यासे।
यदि तदा सर्वमफलं दर्शनं ज्ञानं तपः करोषि ।।५४ ।। जिस प्रकार शिकारी के बाणों से पीड़ित होकर चंचलचित्त हुआ हरिण किसी देश में वा किसी भी काल में स्थिरता को प्राप्त नहीं होता है, और कहीं पर स्थिरता को प्राप्त न होकर वन का आश्रय लेता है। मन के चलायमान होने से वन का आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार इन्द्रियों के द्वारा अमनस्कता को प्राप्त होकर, कामबाण से चलायमान चित्त होकर किसी भी धार्मिक कार्य में तथा आत्मध्यान में लीन नहीं हो सकता
और इन विषयों की प्राप्ति नहीं होने पर इस लोक (इसभव) में विषयवियोगजन्य दारुण दुःखों को भोगत्ते हैं और पर भव में नरक तिर्यञ्च आदि योनियों में अनेक दुःखों को भोगते हैं।
हे क्षपक ! इस प्रकार इन्द्रियसुख की अभिलाषा के दु:खों को जानकर इन्द्रियविजयी बनो। इन्द्रियविषयों को विष के समान आत्मघातक समझकर इनका त्याग करो और परमात्मा का ध्यान कर स्व में स्थिर होने का प्रयत्न करो ॥५३॥
हे गुरुदेव ! सकल परिग्रह के त्याग की प्रतिज्ञा रूप संन्यास धारण करके यदि विषयों की अभिलाषा रखते हैं और विषयों को सेवन नहीं करते हैं तो उसको चिदूप की प्राप्ति नहीं होती है क्या? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं
__"सर्व प्रकार के आरम्भ और परिग्रह का त्याग कर संन्यास को ग्रहण कर लिया है, फिर भी यदि उसकी विषय-अभिलाषा नष्ट नहीं होती है, तो उसका दर्शन, ज्ञान, तपश्चरण आदि आराधना करना सर्व निष्फल हो जाते हैं ।।५४ ।।