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आराधनासार-१३१
ततः श्रुताभ्यास विदधानः परमं तपश्चिन्वान: कालमतिवाहयामास ।।
अन्यदा तीव्रतरे शीतौ प्रवर्तमाने पुरबाह्योद्याने कायोत्सर्गमाश्रित्य तस्थिवान्। शुकचरेण व्यतरदेवेन तेन पूर्ववैरमनुस्मृत्य शीतलवारिणा सिक्तः तथा शीतलवातेन कदर्थित: सहजशद्धं परमात्मानमाराध्य केवलाख्यं च ज्योतिरुत्पाद्य निर्वाण प्राप्तवान् श्रीदत्तो मुनिः ।।५१ ।।
दैगम्बर मुद्रा धारण कर सर्वप्रथम उन्होंने गुरु के चरण सान्निध्य में श्रुत का अभ्यास किया। राजकीय सुखों से पले हुए शरीर के ममत्व का त्याग कर घोर तपश्चरण करते हुए अनेक देशों में विहार करके अनेक भव्य जीवों को धर्मोपदेश देकर सन्मार्ग में लगाते हुए कुछ काल के बाद अत्यन्त शीत ऋतु के समय स्वनगर में आकर बाह्य उद्यान में कायोत्सर्ग मुद्रा से खड़े होकर आत्मध्यान करने लगे।
___ मानव कषायों के उद्रेक में आकर अनुचित कार्य करके कर्म बाँधता है और जब उनका फल भोगना पड़ता है तब दुःख का अनुभव करता है, दुःखी होता है।
राजा ने क्रोध में आकर जिस तोते को मारा था वह मरकर व्यंतर हुआ था। वह श्रीदत्त मुनिराज की तरफ से गुजरा तो उनको देखकर उसका क्रोध उमड़ आया। पूर्वभव के स्मरण से राजा को अपना शत्रु समझ कर उसने प्रतिशोध के लिए उपद्रव करना प्रारंभ कर दिया । एक तो जाड़े के दिन उस पर उसने ठण्डी हवा चलाई। पानी बरसाया और ओले गिराये। हर प्रकार से मुनिराज को कष्ट देने का प्रयत्न किया परन्तु श्रीदत्त मुनिराज के मन मेरु को वह किञ्चित् भी विचलित नहीं कर सका।।
श्रीदत्त मुनिराज ने शांतिपूर्वक उन कष्टों को सहन किया। तोते के जीव व्यतरदेव के द्वारा पूर्व वैर का स्मरण कर के शीतल जल और शीतल वायु के द्वारा कर्थित (दुःख) होने पर भी, स्वकीय मन को बाह्य से हटाकर सहज शुद्ध परमात्मा के ध्यान में लगाकर निर्विकल्प समाधि के द्वारा क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होकर पृथक्त्व वितर्क शुक्ल ध्यान के बल से मोहनीय कर्म का विध्वंस करके तथा एकत्व वितर्क शुक्ल ध्यान के द्वारा शेष तीन घातिया कर्मों का नाश कर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान के बल से योग निरोध करके व्युपरतक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान के बल से शेष अघातिया कर्मों का नाश कर शाश्वत अविनाशी मोक्षपद को प्राप्त किया ।
हे आत्मन् ! श्रीदत्त मुनिराज के चिन्तन रूप अग्नि के द्वारा शीत के कारण होने वाले दुःख को दूर कर स्व आत्मा के ध्यान में मग्न हो जाओ। बाह्य में होने वाले शीत का अनुभव मत करो। शीत के कारण अपने मन को विचलित मत होने दो॥५१||
श्रीदत्त की कथा समाप्त हुई।