________________
आराधनासार १३०
देवनिकायनिर्मितोपसर्गविवहणं गैरकारितानुदाहरति
-
अमरकओ उवसग्गो सिरिदत्तसुवण्णभद्दआईहिं । समभावणाए सहिओ अप्पाणं झायमाणेहिं ॥ ५१ ॥
अमरकृत उपसर्ग: श्रीदत्तसुवर्णभद्रादिभिः ।
समभावनया सोढ आत्मानं ध्यायद्भिः ||५१ ||
सहिओ सोढः । कोसौ । उपसर्गः विषमतरवेदना । कीदृश उपसर्गः अमरकओ अमरकृतः देवनिकायविहितः । तीव्रतरोपसर्गः विसोढः । कैरित्याह । सिरिदत्तसुवण्णभद्दआईहिं श्रीदत्तसुवर्णभद्रादिभिः श्रीदत्तश्च सुवर्णभद्रश्च श्रीदत्तसुवर्णभद्रौ तावादी येषां ते श्रीदत्तसुवर्णभद्रादयस्तै श्रीदत्तसुवर्णभद्रादिभिः 1 कया सोढः । समभावणया समभावनया शत्रौ मित्रे तृणे स्त्रैणे समाना या भावना सा - समभावना तया समभावनया । किं कुर्वद्भिस्तैरुपसर्ग: सोढः । अप्पाणं झायमाणेहिं आत्मानं सहजशुद्धबुद्धैकस्वभावं ध्यायद्भिः ध्यानगोचरी - कुर्वद्भिः । अत्र श्रीदत्तस्य कथा यथा । इलावर्धननगरे राजा श्रीदत्तो राज्ञी अंशुमती तयोर्द्यूतं क्रीडतो सतोः राज्ञ्या पराभवं गते राजनि राज - पत्नीशुक एकां रेखां दत्तवान्। एकवारं राज्ञा हारितमिति कुपितेन भूपेन शुको गलं मोटयित्वा मारितः । स केनचिद्ध्यानविशेषेण मृत्वा व्यंतर देवोऽजनि T राजा श्रीदत्तोप्यन्यदा धवलगृहोपरि स्थितो जलधरजनितप्रासादविनाशं दृष्ट्वा संजातवैराग्यः पुत्राय राज्यं वित्तीय जैन दीक्षामशिश्रियत् ।
जिन्होंने चतुर्निकायदेव कृत उपसर्गों को सहन किया है, अब उनका उदाहरण देते हैं
श्रीदत्त, सुवर्णभद्र आदि महान् पुरुषों ने आत्मा का ध्यान करते हुए समभावना के द्वारा देवकृत उपसर्ग सहन किया है ॥ ५१ ॥
श्रीदत्त, सुवर्णभद्र आदि मुनिराजों ने सहज शुद्ध बुद्ध, एक स्वभाव आत्मा का ध्यान करते हुए. शत्रु-मित्र, काचकंचन, तृण - कोमल बिस्तर आदि में समभावना से चार निकाय देवकृत विषमतर वेदनापूर्ण तीव्र घोरोपसर्ग सहन किया था । * श्रीदत्त की कथा
इलावर्धन नगर में श्रीदत्त नामका राजा रहता था। उसके अंशुमती नाम की रानी थी। मनोरंजन के लिए राजा और रानी राजमहल में जुआ खेलते थे। तब अंशुमती के द्वारा पाला हुआ तोता हार-जीत का संकेत स्वकीय नख से रेखा खींच कर करता था । पर साथ ही उसमें यह दुष्टता थी कि जब श्रीदत्त जीतता था तब वह एक रेखा खींचता और जब उसकी मालकिन अंशुमती जीतती थी तब वह दो रेखायें खींच देता था। श्रीदत्त ने तोते की इस चालाकी को बहुत बार सहन किया किन्तु तोते की दुष्टता जारी रही । अन्त में श्रीदत्त को क्रोध उत्पन्न हुआ और उन्होंने तोते की गर्दन मरोड़ दी । तोता उसी समय मर गया और मरण समय किसी ध्यान विशेष से मरकर व्यंतर जाति का देव हुआ ।
एक दिन संध्या के समय धवल महल पर बैठे हुए श्रीदत्त प्राकृतिक सौन्दर्य देख रहे थे कि बादल का एक बड़ा भारी टुकड़ा आँखों के सामने से गुजरा और देखते-देखते छिन्न-भिन्न हो गया। यह दृश्य देखकर श्रीदत्त का हृदय संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गया। संसार की क्षणभंगुरता उनके सामने नाचने लगी। उपयोग की सारी वस्तुयें उन्हें विद्युत् (बिजली) के समान नाशवंत प्रतीत होने लगीं। सर्प जैसे विषैले विषय भोगों से उनका हृदय काँप उठा। शरीर की अपवित्रता जानकर उससे ममत्व हट गया। तत्काल पुत्र को राज्य देकर उन्होंने दैगम्बरों मुद्रा धारण कर ली।