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आराधनासार-१२९
"हे विप्रवर ! मैं आपके शुभागमन के लिए कृतज्ञ होकर आपका सहर्ष स्वागत करता हूँ। आपने यज्ञमण्डप में आकर मुझ पर बड़ी कृपा की है, अतः आज मैं आप पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। इस समय आप अपनी इच्छानुसार वस्तु मांग सकते हो, बोलो! आपको क्या चाहिए?"
बलि की प्रेरणा से वामनरूप धारी विष्णुकमार ने कहा, “हे राजन् ! यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हो तो मेरे पैर से मापित तीन डग जमीन मुझे प्रदान करें, मैं अपनी इच्छानुसार छोटी सी झोपड़ी बना कर रहूंगा।"
वामन ब्राह्मण की बात सुनकर सारे लोग हँसने लगे। उन्होंने ब्राह्मण को कहा- "हे विप्र! तुम इतनी छोटी वस्तु की क्या याचना करते हो? इस दानी राजा के समीप आये हो ऐसी वस्तु की याचना करो जिससे तुम्हारा सारा दारिद्र्य दूर हो जाये।"
ब्राह्मण ने कहा, "अधिक लोभ नहीं करना चाहिए क्योंकि सारे पापों की जड़ लोभ है। यदि आप कुछ देना चाहते हो तो मेरी इच्छानुसार 'नालीन प्राप्त कर अप्रथा मैं यहाँ जो चला जाता हूँ।"
बलि ने तीन डग जमीन देने की स्वीकृति दी और कहा- “विप्रराज ! तुम अपनी इच्छानुसार अपने पैरों से जमीन नाप लो।" .
बलि की अनुमति पाकर विक्रिया से उन्होंने अपने पैर को बढ़ाया। एक पैर मेरु पर्वत पर रखा और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर, जब तीसरा पैर रखने के लिए जगह नहीं रही, पैर नभस्थल में लटक गया, तो देवताओं के आसन कम्पायमान हो उठे। "क्षम्यता, क्षम्यता, क्षम्यता" ध्वनि से नभस्थल गुंजित हो उठा। विष्णुकुमार ने बलि की ताड़ना की। सात सौ मुनिराजों का उपसर्ग दूर किया। सब लोग धन्य-धन्य कहने लगे।
हे क्षपक! तुम अपने परिणामों को निर्मल कर कष्टों पर विजय प्राप्त करने के लिए उन मुनिराजों का चिंतन करो, जिससे कष्ट सहन करने की क्षमता प्राप्त होगी। परिणामों में स्थिरता आयेगी।
जैसी आत्मा उनकी है, वैसी ही तेरी आत्मा है। उस अपनी आत्मा का अनुभव करो। वह भूख, प्यास, आधि, व्याधि से रहित है। ये सारी बाधायें या कष्ट शरीर के साथ सम्बन्धित हैं। तुम शरीर के ममत्व का त्याग करके स्व-स्वरूप में रमण करने का प्रयत्न करो। शरीर सम्बन्धी सुख-दुःख का अनुभव मत करो।
यह तुम्हारा अन्तिम समय है, इसमें तुम सावधान रहो, किसी भी विषय में स्वमन को मत भटकाओ, अन्यथा संसार के अनेक दुःखों का सामना करना पड़ेगा। अतः तुम सावधान होकर अपने मन को शुद्धात्मा के चिंतन में स्थिर करो।