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आराधनासार - १२८
दिगम्बर जैन साधु दुःसह परीषहों को सहन करने में भयभीत या आकुल-व्याकुल नहीं होते। वे धीरता से सारे कष्टों को सहन कर अपने मार्ग पर दढ़ रहते हैं।
हस्तिनापुर में जब सात सौ मुनिराजी पर घोरोपसर्ग हो रहा था, उस समय मिथिलानगरी में श्रुतसागर मुनिराज ने श्रवण नक्षत्र के कँपने से अपने निमित्तज्ञान से जान लिया कि हस्तिनापुर में अकम्पनादि सातसौ मुनिराजोंपर घोर उपसर्ग हो रहा है, तब उनके मुख से अकस्मात् हाय ! हाय ! शब्द निकल पड़ा। वे बोल पड़े, 'अरे ! मुनिराजों को कितना कष्ट हो रहा है।' उनके समीप बैठे हुए पुष्पदन्त नामक क्षुल्लक ने पूछा, “हे गुरुदेव ! किस स्थान पर यह अनर्थ हो रहा है? मुनिराजों पर घोर उपसर्ग हो रहा है ?" क्षुल्लक पुष्पदन्त ने पुन: जिज्ञासा की। “हे देव! इसके निवारण का उपाय क्या है?' मुनिराज ने कहाविक्रियाऋद्धिधारी विष्णुकुमार मुनि इस उपसर्ग का निवारण कर सकते हैं।" मुनिराज की बात सुनकर शीघ्र ही क्षुल्लक विष्णुकुमार मुनिराज के पास पहुंचे और उन्होंने उनको सारा वृत्तान्त कहा।
सर्वप्रथम विष्णुकुमार मुनिराज ने अपनी ऋद्धि की परीक्षा की। जब उन्होंने अपना हाथ फैला कर देखा-तब उनका हाथ बहुत दूर तक फैल गया।
हस्तिनापुर के राजा विष्णुकुमार के अग्रज थे। महापद्य राजा के दो पुत्र थे विष्णु और पद्म । विष्णु कुमार ने महापद्म राजा के साथ तपोवन को स्वीकार किया और पद्य ने राज्य ।
विष्णुकुमार तत्काल हस्तिनापुर आये। उन्होंने अपने अग्रज पद्य राजा को सम्बोधित करते हुए कहा-'हे भव्य ! आपने यह क्या किया? हा दैव? आपके देखते देखते तपस्वी जैन मुनियों पर इस प्रकार का अत्याचार होता रहे और आप मूक बनकर दृश्यावलोकन करते रहें? क्या आपको ज्ञात नहीं है कि आपके ही नगर में निर्दोष मुनिसंघ पर घोर उपसर्ग हो रहा है। आप शीघ्र ही इस अत्याचार को रोकिए अन्यथा आपको भयंकर दुःखों का सामना करना पड़ेगा।"
अपने प्रिय अनुज मुनिराज के सारगर्भित शिक्षायुक्त उपदेश को सुनकर राजा पद्य ने विनीत शब्दों में कहा- “हे गुरुदेव ! मैं इस समय प्रतिज्ञा के कठिन बंधन में जकड़ा होरेसे विवश हूँ। मुझे यह ज्ञात नहीं था कि दुष्ट मायावी मंत्री मेरे राज्य में ऐसा अनर्थ करेंगे। हे गुरुदेव ! आप ही कोई उपाय कीजिए जिससे मुनिसंघ की विपत्ति का निवारण हो जावे।"
विष्णुकुमार मुनिराज विक्रिया ऋद्धि से वामन ब्राह्मण का वेष धारण कर वेदमंत्रों का उच्चारण करते हुए बलि के यज्ञ-मण्डप में पहुंच गए। यज्ञमण्डप में उपस्थित सभी लोग ओजस्वी ब्राह्मण के मुख से वेदमंत्र का पाठ सुनकर मंत्रमुग्ध हो गए। बलि के आनन्द का पारावार नहीं था। उसने भावविह्वल होकर कहा,