________________
आराधनासार - १२५
वार्त्तालाप न करे। सब मौन धारण कर आत्मध्यान में मन रहें, अन्यथा संघ पर उपसर्ग आने की संभावना है।" गुरु की आज्ञा अनुसार सर्व मुनिराजों ने मौन ग्रहण कर लिया। ठीक ही है- जो गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य करते हैं वे शिष्य प्रशंसनीय होते हैं।
जब राजा ने मुनिराज का आगमन सुना तो उसका शरीर पुलकित हो उठा और मन मयूर नाच उठा । पुरजन- परिजन सहित राजा मुनिराज के दर्शन करने निकला। राजा को जाते देखकर अनमने भाव से चारों मंत्री भी साथ चलने लगे। उनका हृदय कपट से भरा हुआ था।
बाह्य उद्यान में जाकर मुनिराज के दर्शन करके राजा के नेत्र आनन्द अश्रु से भीग गये। शरीर रोमांचित हो गया। बाणी में गद्गदपना आ गया। राजा ने हर्षित होकर सर्व मुनिराजों को पृथक्-पृथक् नमस्कार किया परन्तु किसी भी मुनिराज ने न तो आशीर्वाद दिया और न वार्तालाप किया।
तत्त्ववेत्ता राजा उनको ध्यानस्थ देखकर बहुत आनन्दित हुआ । मुनिराज के दर्शन कर जब राजा अपने घर जाने लगा तब चारों मंत्री मुनिराज की निन्दा करने लगे और कहने लगे "राजन् ! ये महामूर्ख हैं इसलिये मौन का आश्रय लेकर बैठ गये। आपने सबको नमस्कार किया परन्तु मूर्खों ने आपको आशीर्वाद भी नहीं दिया ।" राजा उनकी बातें सुन रहा था किन्तु प्रत्युत्तर नहीं दे रहा था। उसके हृदय में जिनधर्म की श्रद्धा अटूट भरी हुई थी। कुछ दूर चलने के बाद मार्ग में श्रुतसागर नामक मुनिरोज दृष्टिगोचर हुए जो नगर से आहार करके आ रहे थे। मुनिराज को देखकर मंत्रियों को क्रोध उमड़ा और उन्होंने कुवचन कहकर मुनिराज का तिरस्कार किया। बात ही बात में मंत्रियों के साथ श्रुतसागर महाराज का शास्त्रार्थ प्रारंभ हो गया। मुनिराज ने स्याद्वादमय वाणी से मंत्रियों को पराजित कर दिया।
मंत्रियों को परास्त कर मुनि श्रुतसागर ने गुरुदेव अकम्पनाचार्य के समीप जाकर सारा समाचार निवेदन किया। क्योंकि यह मुनियों की समाचार विधि हैं कि मार्ग में या स्थान में जो कुछ किसी के साथ बोलना या किसी वस्तु की प्राप्ति होती है, वह सब गुरु को जाकर कहना ।
मुनि श्रुतसागर के द्वारा कथित वृत्तान्त को सुनकर खेद प्रकट करते हुए आचार्यदेव ने कहा“हाय ! सर्वनाश उपस्थित हो गया। तुमने अपने हाथों से संघ पर कुठाराघात किया। देखो, तुमने उन मंत्रियों से शास्त्रार्थ कर संघ की इतनी हानि की है, जिसका कथन करना भी संभव नहीं है।"
श्रुतसागर मुनिराज आहारचर्या के लिए नगर में गये हुए थे । उनको गुरु आज्ञा की जानकारी नहीं थी, इसलिए उन्होंने मंत्री के साथ विवाद किया था, यदि उनको आज्ञा विदित होती तो वे गुरु आज्ञा का भंग कभी नहीं करते ।