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आराधनासार-१२४
निरूपण करके राजमंत्री को निरुत्तर कर दिया। लज्जित होकर मंत्री अपने घर आया परन्तु मानहानि की चोट उसके हृदय को कचोट रही थी। उसको कहीं शांति नहीं थी। उसने बिना कारण मुनिराज से द्वेषकर उनको मारने का निश्चय किया। सत्य है, अज्ञानी जन विना कारण वैर-विरोध कर स्व का घात करते हैं।
“राजा जिनधर्मावलम्बी है, उसके समक्ष मैं इन दिगम्बरों का घात कैसे कर सकता हूँ अतः ऐसा कोई उपाय हो जिससे राजा स्वयं धर्मद्रोही बन जाये, मेरी मनोकामना पूरी हो सकती है, अन्यथा नहीं।" ऐसा विचार कर उसने एक भाँड को मुनि बनाकर राजमहल में रानी के पास भेजा। वह भाँड रानी के निकट जाकर हँसी-मजाक करने लगा। इधर राजमंत्री ने राजा के समीप जाकर कहा कि “राजन्! जिन के चरणों की आप दिन-रात सेवा करते हैं जिन को परमपूज्य मानते हैं, उनका दुष्कृत्य देखो; कितनी नीच है- उसकी चर्या।" उस भाँड की लीला देखकर राजा के शोध की सीमा नहीं रही. उसने आज्ञा दी कि सारे मुनियों को घानी में पेल दो। मंत्री तो यह चाहता ही था, उसका मन बाँसों उछलने लगा। सत्य ही है, मनोकामना पूरी होने पर किसको आनन्द नहीं आता। राजाज्ञा पाकर राजमंत्री ने अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनिराजों को तिल के समान घानी में डालकर पेल दिया ।
सारे मुनिराजों ने स्वकीय कर्मविपाक फल का विचार कर समभावों से उपसर्ग सहन किया। वे निर्विकल्प समाधि में लीन हुए और केवलज्ञान प्राप्त कर उन्होंने मोक्षपद प्राप्त किया |
हे क्षपक! तुझे कोई घानी में तो नहीं पेर रहा है, मानवकृत धोरोपसर्ग सहन करने वाले उन अभिनन्दन आदि मुनिराजों का चिन्तन कर । वेदना का अनुभव मत कर! यह वेदना नगण्य है। पराधीन होकर तूने अनेक दुःख भोगे अतः समता भाव धारण कर ।
* अकम्पन मुनिराज की कथा * उज्जयिनी नगरी में धर्मात्मा, न्यायी, प्रचण्ड योद्धा श्रीवर्मा नामक राजा राज्य करता था। उसके राज्य में प्रजा चैन की वंशी बजाती थी। उस राजा के बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमुचि नामक चार राजमंत्री थे। ये चारों जैनधर्म के द्रोही थे- इसलिए वह धर्मात्मा श्रीवर्मा राजा सो से वेष्टित चन्दन वृक्ष के समान प्रतीत होता था।
एक दिन सात सौ मुनियों के साथ अकम्पनाचार्य उज्जयिनी नगरी के बाह्य उद्यान में आकर ठहर गये। अकम्पनाचार्य ने अपने निमित्तज्ञान के द्वारा ‘संघ पर कोई उपसर्ग होने की संभावना है' ऐसा जानकर संघस्थ सर्व मुनियों को आदेश दिया कि "कोई भी मुनिराज राजा तथा राज्य-कर्मचारियों के साथ