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आराधनासार - १२३
* चाणक्य मुनि की कथा * राजपुरोहित कपिल की पत्नी देविला की कुक्षिसे उत्पन्न चाणक्य नामक एक ब्राह्मणपुत्र था। यह अत्यन्त बुद्धिमान था । एक दिन चाणक्य ने महीधर नामक मुनिराज के दर्शन किये और उनके मुखारविन्द से धर्मोपदेश सुना | मुनिराज के मुख से संसार की असारता जान कर और स्वयं उसका अनुभव कर चाणक्य का मन संसार से भयभीत हो गया और संसार-बन्धन से छूटने के लिए उसने मुनिराज के चरणकमलों में जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। मुनिराज पाँच सौ शिष्यों के साथ अनेक देशों में भ्रमण करते हुए क्रौंचपुर में आये और अपनी आयु को बहुत कम समझकर वहीं पर बाह्य उद्यान में प्रायोपगमन संन्यास ले लिया।
मुनिराज का आगमन सुन नागरिक शुद्ध भावों से मुनिराज की वन्दना करने के लिए आये परन्तु चाणक्य के पूर्व भव के शत्रु के चाणक्य को देखकर आँखों से क्रोध की चिनगारियाँ निकलने लगीं। प्रतिशोध की भावना से उसने मुनिराज के चारों तरफ घास का पुंजकर आग लगा दी।
अग्नि के द्वारा मुनिराज का शरीर लकड़ी के समान जलने लगा परन्तु यतिराज का मन किंचित् मात्र भी खेद-खिन्न नहीं हुआ। वे शरीर से उपयोग को हटाकर सहज शुद्ध स्वभाव में स्थिर हो गये। तत्काल शुक्ल ध्यान के बल से धातिचा कमां का क्षयकर केवलज्ञानी बने और अन्तकृत केवली होकर तत्क्षण ही उन्होंने मुक्तिवधू का वरण कर लिया।
हे क्षपक ! उन मुनिराज के समान तो तुझे दुःख नहीं है। उन मुनिराज का चिन्तन करो। उनके समान ही मेरी आत्मा है' ऐसी भावना करो सहज शुद्ध स्वभाव में स्थिर होने का प्रयत्न करो। शारीरिक दुःखों की तरफ लक्ष्य मत दो। आधि, व्याधि और उपाधि से उपयोग को हटाकर समाधि में लीन हो जावो। यदि किसी कारणवश थोड़ासा भी मन विचलित हुआ तो दुर्गति में जाना पड़ेगा।
मानवकृत उपसर्ग को सहन करने वाले चाणक्य की कथा समाप्त हुई।
* अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनिराजों की कथा * दक्षिण भारत में कुंभकाटकर नामक नगर में दण्डक नामक राजा रहता था। उसके हृदय में जिनभक्ति कूट-कूट कर भरी थी। उसका बाल नामक राजमंत्री जिनधर्म से द्वेष रखता था। उस मंत्री के सहवास से राजा ऐसा मालूम होता था जैसे विषधर से वेष्टित चन्दन वृक्ष । अर्थात् राजा चन्दनवृक्ष के समान था और मंत्री सर्प के समान ।
एक दिन उस नगर में अभिनन्दन आदि पाँच सौ मुनिराजों का संघ आया। अभिमानी मंत्री शास्त्रार्थ के लिए मुनिराजों के समीप गया। खण्डक नामक मुनिराज ने स्यावाद के बल से वस्तु का यथार्थ रूप