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आराधनासार - १२२
स्वाधीनेपि कलन्ने नीय: परदारलंपटो भवति ।
परिपूर्णेपि तडागे काकः कुंभोदकं पिबति ।। अन्यदा गजकुमारो नेमिनाथवंदनार्थं समवशरणमीयिवान्। तत्र भगवतः परांगनापरित्यागलक्षणं धर्ममुपदिशतो मुखादिदं पद्यमश्रौषीत् । उक्त च
चिंताव्याकुलताभयारतिमतिभ्रंशातिदाहभ्रमक्षुत्तृष्णाहतिरोगदुःखमरणान्येतान्यहो आसताम् । यान्यत्रैव परांगनाहितमतेस्तद्भरि दुःखं चिरं
श्वभ्रेऽभाषि यदग्निदीपितवपुलॊहांगनालिंगनात् ।। इत्यादिकं श्रुत्वा गजकुमारस्तत्क्षणादेव विरक्तः समभूत्। ततो जिनपादाते तपो जग्राह। गुरुसेवया श्रुतपदान्यन्वासीत्। कालक्रमेण गिरनार-गिरि विकटाटव्यां पादपोपयानमरणं स्वीकृत्य संन्यासेन स्थितः । इतश्च पांसुलश्रेष्ठी चिरंतननिजांगनासक्तिजनितं वैरमनुस्मृत्य तीव्रतरक्रोधावेशात्तं मुनीन्द्रं गजकुमारं लोहकीलकैः कीलयित्वा बहुतरां पीड़ां चापाद्य प्रपलाय्य गतः। मुनीन्द्रोऽपि तथाविधां बाधा सोवा धर्मध्यानेन स्वर्गगतः । इति गजकुमार कथा ।।५० ।।
"नीच पापी पुरुष स्वाधीन सती सुन्दर पत्नी के होने पर भी परदार-लम्पट हो जाता है। जैसे स्वच्छनीर से परिपूर्ण तालाब के होने पर भी उस तालाब को छोड़कर कौआ गन्दे पानी से भरे हुए घड़े में मुख डालता है।"
एक दिन गजकुमार नेमिनाथ भगवान की वन्दना करने के लिए समवसरण में गया और वहाँ पर भगवान के मुख से परस्रीत्याग लक्षण धर्म का उपदेश सुनते हुए उसने यह पद्य सुना। उन्होंने कहा
“अहो ! परांगना का सेवन करने वाले को इस लोक में चिंता, व्याकुलता, भय, अरति (धार्मिक कार्य वा स्वकीय स्त्री-पुत्र आदि से अरुधि), मति का नाश, अतिदाह, भ्रम, भूख-प्यास, अति दारुण रोग, दु:ख और मरण आदि कष्ट होते हैं और परलोक में नरकगमन, वहाँ पर अग्नि से तप्तायमान लोहमयी पुतली के आलिंगन से उत्पन्न अनेक प्रकार के दु:ख भोगने पड़ते हैं, जिनका कथन जिह्वा से नहीं हो सकता।"
भगवान नेमिनाथ के मुखारविन्द से परस्री-सेवन से होने वाले दुःखों को सुनकर गजकुमार का हृदय काँप उठा। उसने संसार के सारे द्वन्द्र को छोड़कर भगवान के चरण मूल में जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करली।
भगवान के चरण मूल में कुछ दिन रहकर उसने श्रुतपों का अभ्यास किया।
अनेक देशों में विहार कर गजकुमार एक दिन गिरनार पर्वत की अटवी में आये और पादपोपयान मरण स्वीकार कर संन्यास में लीन हो गये।
उस अटवी में पांसुल सेठ आया। पूर्वकालीन स्वकीय अंगना के सेवन से उत्पन्न हुए वैर का स्मरण कर उसका हृदय क्रोध से तिलमिला उठा। उसने गजकुमार का अनेक कुवचनों के द्वारा तिरस्कार किया और लोहमयी कीलों से उनके शरीर को छेदकर वह चला गया। गजकुमार मुनिराज ने सम भावों से उन सब कष्टों को सहन किया और वे प्राण छोड़कर धर्मध्यान के बल से स्वर्ग में गए ।।५०॥ (किसी कथानक में गजकुमार के मस्तक पर विप्रने अग्नि जलाई ऐसा कथन भी आता है।)
।। इति गजकुमार कथा ॥