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आराधनासार-१२१
आदिशति तदा बाहुबलेन प्रतिपक्षान् हन्वः इति क्षणं ध्यात्वा पुन: स्वीकृतयतिव्रतरत्लस्मरणात्प्रतिबुद्ध्यात्मानं निंदित्वा परमधर्म-ध्यानेन सर्वार्थसिद्धिमीयतुः । इति पांडवानां कथा । न केवलं पांडवादिभिः उपसर्गः सोढः। गयवरकुमरेहिं गजकुमारेणापि सोढः तह य अवरेहिं तथापरैः तथा तेनैव प्रकारेण अन्यैरपि सोढः । किंविशिष्टैस्तैः । महाणुभावेहिं महानुभावैः सत्वाधिकै: महापुरुषैः। अत्र गजकुमारकथा। इह प्रसिद्धायां द्वारवत्यां वसुदेवोऽनेकभूपालकृतपादसेवो राजते। तस्यात्मजो गजकुमारः परं सर्वेषु राजकुमारेषु स पराक्रमसारः। अन्यदा नारायणेन य: पोदनपत्तननायकमपराजितं रणभूमौ विजित्य बद्ध्वा चानयति स मनोवांछितं लभते इति घोषणा निजनगर्यां दापिता। तां गजकुमारो निशम्य त्वरितं तत्र गत्वा अपराजितरणभूपाल रणक्षोणौ जित्वा बद्ध्वा चानीयं वासुदेवस्य समर्पितवान् । ततश्च कामचारं चरित्वा स द्वारवती-स्त्रीजनं सेवमानः पांसुलश्रेष्ठिपल्यामासक्तोऽभूत्। यदुक्तम्
नकुल और सहदेव ने विचार किया कि यदि अभी भी राजा (युधिष्ठिर) आदेश देते हैं तो "हम अपने बाहुबल से शत्रुओं को यमराज के घर पहुंचा सकते हैं।" इस प्रकार एक क्षण विचार कर, पुनः स्वीकार किये हुए मुनिव्रत रूपी रत्नों का स्मरण होने से प्रतिबद्ध होकर (अपने स्वरूप को समझकर) स्वात्मा (स्वकीय) की निन्दा और गर्दा करके परम निर्विकल्प धर्म यान के बल मे मर्थिशिन्द्रि को प्राप्त हुए।
हे क्षपक ! तू इन पाण्डवों का चिन्तन कर। उनके बराबर तो तेरा दुःख नहीं है। इस शरीर की ममता का परित्याग कर। अनन्त सुख के पिण्ड स्वकीय आत्मा का ध्यान कर। आत्मानुभव रूप अमृत के सागर में डुबकी लगा। यह तुम्हारा अन्तिम समय है, ज्ञानसुधा रस का पान कर।
|| पाण्डवों की कथा समाप्त हुई। केवल पाण्डवों ने ही मनुष्यकृत उपसर्ग सहन नहीं किया अपितु अन्य अनेक महापुरुषों ने भी मनुष्यकृत उपसर्ग सहन किये हैं जिनकी गणना में गजकुमार राजपुत्र है। उसकी कथा प्रारम्भ करते हैं
प्रसिद्ध द्वारिका नगरी में अनेक राजाओं के द्वारा सेवित हैं चरण जिसके ऐसा वासुदेव नामक राजा राज्य करता था। उसके अनेक राजकुमारों में प्रसिद्ध पराक्रमी गजकुमार नामक पुत्र था।
__ एक दिन वासुदेव (श्रीकृष्ण) नारायण ने अपनी नगरी में घोषणा की कि "जो कोई महानुभाव पोदनपुर के नायक अपराजित नामक राजा को रणभूमि में जीतकर और उसको नागपाश से बाँधकर मेरे चरणों में झुकायेगा, उसको मैं मनोवांछित वस्तु प्रदान करूँगा”।
राजकीय घोषणा को सुनकर गजकुमार ने शीघ्र ही रणभूमि में जाकर रणांगण में अपराजित राजा को जीतकर, उसे नागपाश से बाँधकर वासुदेव को समर्पित कर दिया। वासुदेव ने भी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार गजकुमार को आदेश दिया कि "मेरे राज्य में तुम इच्छानुसार वस्तु ग्रहण कर सकते हो, इच्छानुसार चेष्टा कर सकते हो।"
. किसी भी वस्तु की प्राप्ति होने पर यह मानव उसका सदुपयोग भी कर सकता है और दुरुपयोग भी। राजा की आज्ञा से मनोवांछित वर प्राप्त कर गजकुमार ने अच्छे धार्मिक काम तो नहीं किये प्रत्युत् परस्री-लम्पट होकर उसने द्वारिका में स्थित कई स्त्रियों का शीलभंग किया और पांसुल नामक सेठ की पत्नी में आसक्त हो गया। सो ही कहा है