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आराथनासार-१२०
कृतोपसर्गसहनशीलस्य गुरुदत्तभूपतेर्दृष्टांतकथा। अत:परं पांडवानां कथा। पूर्वोपार्जिताखंडपुण्यप्रभावेण दुर्जयान् दुर्योधनादीन् परांश्च शत्रून् जित्वा दक्षिणमथुरायां राज्यं कुर्वाणा विलसत्कीर्तितांडवाः पांडवा: खल्वासन् । अन्यदा ते नेमिनाथनिर्वाणमाकर्ण्य सपदि संसारशरीरभोगनिर्विण्णाः स्वस्वपुत्रेषु राज्यभारमारोप्य जैनी दीक्षां जगहुः । ततस्तपस्तीव्र चिन्वाना; शत्रुजयशिलोच्चयशिखरमारुह्य स्थिरप्रतिमायोगेन शिलोत्कीर्णा इव तस्थुः । तथास्थिताम् तानाकर्ण्य केचिदुर्योधनगोत्रसंभवा राजपुत्रास्तत्पूर्ववैरं स्मृत्वा शत्रुजयं समागत्य चात्यर्थमतूतुदत्। कथं । मुकुटकुंडलहारकेयूरकटकाद्याभरणानि लोहमयानि कृपीटयोनिघनज्वालाभिस्तप्तानि कृत्वा पांडवानां भुजाद्यवयवेषु ते पापा निचिक्षिपुः, वह्नितापितेषु लोहेषु पीठेषु ते तान् न्यवीविशंश्च । ततो युधिष्ठिरभीमार्जुनास्त्रयः स्वस्यैव कर्मविपाकं दुर्निवारं गणयंत: ततो भिन्नं ज्ञानोपयोगदर्शनोपयोगादभिन्नमात्मानमत्यर्थं भाक्यंत: शुक्लध्यानबलेन धातिकर्माणि समूलकाष कषित्वा केवलज्ञानं च समुत्पाद्य शेषाण्यपि कर्माणि क्षपयित्वांतकृतो निर्वाणं शांतमक्षयसुखमीयुः । नकुलसहदेवौ तु अद्यापि यदि राजा
इस प्रकार गुरुदत्त मुनिराज मानव कृत घोरोणार्ग आने पर भी अपने वनायो मुत नहीं हुए लगत्मा के ध्यान में मग्न होकर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया, उसी प्रकार हे क्षपक! तुम भी उन महामुनियों का स्मरण कर अपनी आत्मा में स्थिर होने का प्रयत्न करो। स्व स्वभाव में लीन होओ। बाह्य प्रवृत्तियों का निरोधकर आत्मा का ध्यान करो। इस प्रकार गुरुदत्त की कथा समाप्त हुई।
* पाण्डवों की कथा * पूर्वोपार्जित अखण्ड पुण्य के प्रभाव से दुर्जेय दुर्योधन आदि शत्रुओं को जीतकर सुशोभित कीर्ति वाले पाण्डव दक्षिण मथुरा में आकर राज्य कर रहे थे।
एक दिन नेमिनाथ भगवान को निर्वाणपद की प्राप्ति सुनकर शीघ्र ही संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर उन्होंने अपने-अपने पुत्रों को राज्य-भार देकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली।
अनेक देशों में परिभ्रमण कर., धर्म का प्रचार कर, घोर तपश्चरण करके कर्मों का संवर और निर्जरा करते हुए शत्रुजय पर्वत के उच्च शिखर पर आकर शिलापर उत्कीर्ण पत्थर की प्रतिमा के समान स्थिर प्रतिमायोग से कायोत्सर्ग से स्थित हुए।
"पाँचों पाण्डव मुनि शत्रुजय पर्वत पर ध्यान कर रहे हैं" ऐसा सुनकर, दुर्योधन के गोत्रोत्पन्न कोई राजपुत्र उस पर्वत पर आये। पूर्व वैर का (इन्होंने हमारे पिता-चाचा आदि का घात कर राज ग्रहण किया था ऐसा विचार कर) स्मरण कर उन्होंने ध्यानस्थ पाण्डवों को बहुत दुःख दिया। अग्निज्वाला से संतप्त लोहमयी मुकुट, कुण्डल, हार, केयूर (बाजुबन्द) कड़ा आदि आभूषण उन पापियों ने पाण्डवों के भुजादि अवयवों में पहना दिये। अग्नि से संतप्त लोहमयी आभूषणों से उनका शरीर जल उठा।
युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ये यतिराज स्वकीय कर्मों के दुर्निवार विपाक का चिंतन कर आत्मा से भिन्न शरीर के ममत्व को छोड़कर ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगमय स्वकीय आत्माकी भावना करके निर्विकल्प समाधि में लीन हो, शुक्ल ध्यान के बल से घातिया कर्मों का समूल नाश कर और केवल ज्ञान प्राप्तकर उसी क्षण चार अघातिया कर्मों का क्षय करके शांत (निराकुल) अक्षय सुखमय निर्वाण को प्राप्त हो गये। अर्थात् अंतकृत केवली होकर निर्वाण को प्राप्त हो गये।