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आराधनासार ११९
मुनिमालोक्य पप्रच्छ । मुने क्षेत्रेस्मिन् ब्राह्मणोस्ति नास्ति चेति तया पृष्टोपि मुनिर्न वक्ति केवलं मौनमास्थाय मुनिः स्थित। ततः सा निवृत्य स्वमंदिरमियाय । बृहद्वेलायां तेन द्विजन्मना क्षेत्रादागत्य भार्या निर्भर्त्सिता । रंडे मुनिं पृष्ट्वा किं नायातासि । तयोक्तं पृष्टोपि न स किंचिदुक्ति । ततोऽकारण पितेन कपिलेन शाल्मलितूलेन वेष्टयित्वा स यतिर्ज्वलति ज्वलने क्षिप्तः उपशमवारिणा वह्निजनितां यातनां यतिर्जित्वा शुक्लध्यानेन केवलज्ञानमुत्पादितवान्। ततोऽसुरामरास्तस्य केवलिनः पूजार्थमाजग्मिवांसः । ब्राह्मणोपिं मुनिचरणार्चामाचरतोऽसुरामरानालोक्य अहो महानयं मुनिस्तदस्योपसर्गमाचरता मयानिष्टं कृतमिति स्वात्मानं निनिंद | तदनु परमवैराग्यरससंपन्नो विप्रः क्षिप्रं यतेः पादयोरुपरि पतित्वा प्रोवाच । स्वामिन्! कृपासागर! यावदनेन पापेन नारको न भवेयं तावन्मां पाहि । मुनिरपि तमासन्नभव्यं वाडवं बुद्ध्वा दीक्षयामास । इति मनुष्य
कुछ क्षण बाद कपिल की पत्नी भोजन लेकर क्षेत्र में आई और वहाँ स्थित मुनिराज को देखकर उसने पूछा- हे मुने! इस खेत में ब्राह्मण नहीं दीख रहा है, कहाँ गया है? परन्तु उसके पूछने पर भी मुनिराज कुछ भी उत्तर नहीं दिया। वे मौन धारण करके यथावत् खड़े रहे। तब ब्राह्मणी लौटकर घर आ गई।
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इसके बाद जब ब्राह्मणी भोजन लेकर नहीं आई तब बहुत समय हो जाने पर भूख से आकुलव्याकुल होकर कपिल घर आया और ब्राह्मणी को भला-बुरा कहने लगा । "रे रंडे ! तू मुनिराज को पूछकर क्यों नहीं आई। ” ब्राह्मणी ने कहा- "मैंने तत्रस्थ मुनिराज को पूछा था परन्तु उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया । " पत्नी के वचन सुनकर पूर्व भव के संस्कार के कारण कुपित होकर कपिल मुनिराज के समीप आया ! उसने शाल्मलिरुई से मुनिराज को लपेट कर उसमें आग लगा दी ।
अग्निज्वाला में जलते हुए मुनिराज ने उपशम भाव रूपी जल के द्वारा अग्निज्वालाजनित ताप को शांत कर शुक्ल ध्यान के बल से केवलज्ञान प्राप्त किया।
केवलज्ञानी गुरुदत्त के चरण-कमलों की पूजा - वन्दना करके आत्मविशुद्धि करने के लिए सुर, असुर, मानव जय-जयकार करते हुए आने लगे ।
मुनिराज के चरणारविन्द की पूजा करने के लिए सुर, असुर आदि महापुरुषों को आया हुआ देखकर कपिल ब्राह्मण सोचने लगा "अहो ! इस महापुरुष पर घोर उपसर्ग करके मैंने अपना बड़ा अनिष्ट किया है। इस पाप से मुझे छुटकारा कैसे मिलेगा?" उसका हृदय पश्चाताप से जलने लगा। वह स्वकीय निन्दा
-आलोचना करता हुआ परम वैराग्य को प्राप्त हो शीघ्र ही केवली मुनिराज के चरण सान्निध्य में जाकर ( चरणों में गिरकर ) बोला - "हे करुणा के सागर भगवन् ! मेरी रक्षा करो। इस पापके कारण मेरा नरक में पतन न हो। हे देव । आप ही मेरे रक्षक हैं, मैं आपकी शरण में आया हूँ, मेरा उद्धार करो।" मुनिराज केवली भगवान के धर्मोपदेश को सुनकर आसन्नभव्य कपिल ने स्वात्मा की रक्षा करने के लिए भगवती आर्हती दीक्षा ग्रहण की।