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आराधनासार ११८
गुरुदत्तपांडवैः च गजवरकुमारेण तथा चापरैः । मनुष्यकृत उपसर्ग: सोढो हि महानुभावैः ||५० ॥
सहिओ सोढः स्फुटं । कः सोढः । उपसर्गः । कीदृशः । माणुसकउ मनुष्यकृत | कै: सोढः 1 गुरुदत्तपंडवेहिं गुरुदत्तपांडवै: गुरुदत्ताख्यो भूपाल: पांडवा : पांडुनरेंद्रपुत्रा युधिष्ठिरादयः गुरुदत्तश्च पांडवाश्च गुरुदत्तपांडवास्तैर्गुरुदत्तपांडवैः । अत्र गुरुदत्तकथा । हस्तिनागपुरे न्यायोपार्जितवित्तो गुरुदत्तो नाम राजा | एकदा स प्रजाया: पीडामापादयंतं व्याघ्रमनुचरमुखादश्रौषीत् । ततः कोपाविष्टो भूपरिद्रढः ससैन्यो गत्वा द्रोणीमति पर्वते सत्त्वसंतानघातकं तं व्याघ्रं रुरोध । व्याघ्रोपि कांदिशीकतया प्रपलाय्य गिरिगुहां प्राविशत् । सकोपो भूपो गुहांतर्दारुभारं क्षेपयित्वा वह्निमदीपयत् । तत्क्षणे प्रदीप्ताशुशुक्षिणिजिह्वाजालेन करालितो व्याघ्रो ममार । मृत्वा च चंद्रपुर्यां कपिलो नाम द्विजन्माऽजनि इतश्च गुरुदत्तः क्षोणीपो वैराग्यकारणं किंचिदवलोक्य पुत्राय राज्य दत्वा यतिर्बभूव । क्रमेण विहारक्रमं विदधानः चंद्रपुरीमभ्येत्य कपिल ब्राह्मणस्य क्षेत्रसविधे कायोत्सर्गेण तस्थौ । कपिलोप निजपाणिगृहीतां सिद्धान्नमादाय सत्त्वरमागच्छेरित्यादिश्य क्षेत्रमीयिवान् । तत् क्षेत्रं कर्षणयोग्यं मत्त्वा क्षेत्रांतरं गतो वाडवः । इतश्च तदीया भार्या संबलं गृहीत्वा क्षेत्रं प्रति गच्छंती अंतराले
गुरुदत्त, युधिष्ठिर आदि पाण्डु पुत्र, बासुदेव का पुत्र गजकुमार, अवर शब्द से चाणक्य मुनि, अभिनन्दन आदि पाँचौ मुनि, अकम्पन आदि सात सौ मुनिराजों ने शुद्धात्म ध्यान के बल से मनुष्यकृत घोर उपसर्ग सहन कर उत्तम पद प्राप्त किया था ||५० ॥
* गुरुदत्त की कथा
हस्तिनापुर में न्यायपूर्वक धन उपार्जन करने वाला गुरुदत्त नामक राजा रहता था। एक दिन अनुचरों के मुख से उसने प्रजा को पीड़ा देने वाले व्याघ्र की वार्त्ता सुनी अर्थात् एक दिन किसी अनुचर ने आकर कहा कि राजन् ! एक व्याघ्र प्रतिदिन आकर प्रजा को पीड़ा देता है। वह द्रोणीमति नामक पर्वत पर रहता है। अनुचर की बात सुनकर क्रोधयुक्त हुआ राजा गुरुदत्त, सेना सहित, उस पर्वत पर आया। उसने प्राणियों के समूह के घातक व्याघ्र को चारों तरफ से घेर लिया। व्याघ्र भी चारों तरफ मनुष्य का घेरा देखकर भागकर पर्वत की गुफा में घुस
गया।
कोपाविष्ट हुए राजा ने गुफा के भीतर लकड़ी भर कर अनि लगा दी। शीघ्र ही जाज्वल्यमान अनि से व्याप्त होकर व्याघ्र गुफा के भीतर मर गया। वह मरकर चन्द्रपुरी नगरी में कपिल नामक ब्राह्मण हुआ । अर्थात् उसने एक ब्राह्मण के घर में जन्म लिया ।
कुछ दिनों के बाद वैराग्य का कोई कारण देख कर गुरुदत्त राजाने राज्य का भार पुत्र के लिए सौंपकर बैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली । अर्थात् वे दिगम्बर मुनि बनकर घोर तपश्चरण करने लगे। बिहार करते-करते वे मुनिराज चन्द्रपुरी नगरी में आकर कपिल ब्राह्मण के क्षेत्र के निकट कायोत्सर्ग से खड़े होकर आत्मध्यान में लीन हो गए। कपिल ब्राह्मण भी अपनी स्त्री को "भोजन लेकर शीघ्र ही क्षेत्र (खेत) में आना ।" ऐसा कहकर कार्य करने के लिए अपने खेत में चला गया। वहाँ उस क्षेत्र को कर्षण के अयोग्य समझकर वहाँ स्थित मुनिराज को " मेरी पत्नी को कह देना कि "ब्राह्मण दूसरे क्षेत्र में गया है" ऐसा कहकर दूसरे खेत में चला गया।