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आराधनासार- १९७
दुःखं वर्धत एव नश्यति चतुर्वर्गो मतेर्विभ्रमः पापं रुक् च मृतिश्च दुर्गतिरथ स्याद्दीर्घसंसारिता ॥
अथ कदाचित्तौ सिद्धार्थसुकोशलाभिधानौ यतीशौ तस्मिन्नेव व्याघ्रीसमुपवेष्टिते मंगलपर्वते मासचतुष्टयपर्यंतमनशनमादाय योगं च गृहीत्वा तस्थिवांसौ । अथ चतुर्थमासेषु व्यतीतेषु तौ योगं निष्ठाप्य पारणार्थं कांचनपुरीमुपसरंतावंतराले तामेव व्याघ्रीं व्यलोकिषातां । इयं पापिष्ठा दुष्टानिष्टं करिष्यतीति संन्यासमादाय शुक्लध्यानमवलंब्य तस्थतुः । इतश्च सा व्याघ्री घोरतररूपा प्राग्जन्मसंस्कारजनिततीव्रक्रोधोत्तालज्वलनज्वालकराला गिरिकुहरान्निर्गत्य तन्मु नियुगं चखाद | तौ शुक्लध्यानबलेन निजनिरंजनशुद्धात्माभिमुखपरिणामपरिणतांतःकरणौ सर्वार्थसिद्धिमीयतुः ॥ इति सुकोशल कथा ॥ ४९ ॥
हैं
मनुष्यकृतोपसर्गो यै: सोढस्तन्नामानि सूचयन्नाह;
गुरुदत्तपंडवेहिं च गवरकुमरेहिं तह य अवरेहिं । माणुसकउ उवसग्गो सहिओ हु महाणुभावेहिं ॥ ५० ॥
से मानव पागल भी हो जाता है। पाप का बंध होता है, अनेक रोगों की उत्पत्ति होती है। मरण भी हो जाता है। मरने पर दुर्गति भी होती है और दीर्घ काल तक संसार में भ्रमण करना पड़ता है अतः शोक-संताप करना अनेक दोषों की वा दुःखों की खान है।"
इसके बाद एक दिन सिद्धार्थ और सुकौशल मुनि व्याघ्री सेवित उसी मंगल नामक पर्वत पर आकर चार महीने का उपवास ग्रहण कर चातुर्मास योग धारण कर कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित होकर आत्म ध्यान करने लगे। चातुर्मास पूर्ण होने पर योग की निष्ठापना करके पारणा करने के लिए कांचनपुर नगर में जा रहे थे। मार्ग में जाते हुए उन दोनों ने उस व्याघ्री को देखा । "यह दुष्ट पापिनी अनिष्ट करेगी।" ऐसा विचार कर, संन्यास ग्रहण कर और शुक्ल ध्यान का अवलम्बन लेकर वहीं पर निश्चल खड़े हो गये। इधर घोरतर विकराल रूप धारिणी पूर्व जन्म के संस्कार से उत्पन्न क्रोध की उत्ताल अमि की ज्वाला से विकराल व्याघ्री ने पर्वत की गुफा से निकलकर दोनों मुनिराजों का भक्षण कर लिया। नित्य निरंजन शुद्धात्मा अभिमुख परिणामों से परिणत है अन्त:करण जिनका ऐसे वे दोनों भुनिराज शुक्ल ध्यान के बल से सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त हुए ।
हे क्षपक ! इस प्रकार सुकुमाल और सुकौशल मुनिराज ने तिर्यञ्च कृत घोर उपसर्ग सहन किया। उनका स्मरण करके स्वकीय दुःखों को भूल जाओ। इस प्रकार सुकुमाल की कथा समाप्त हुई ।। ४९ ।।
अब जिन्होंने मनुष्य कृत उपसर्गों को सहन किया है उनके नामों को सूचित करते हुए आचार्य कहते
गुरुदत्त, पाण्डव, गजकुमार आदि अन्य भी महानुभावों ने मनुष्यकृत घोर उपसर्ग सहन किये
हैं ॥ ५० ॥