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आराधनासार-११६
किंचिद्वदतिस्म । ततो धात्री प्रोवाच। भो तनय! इमं मुनिमात्मीयं जनकं जानीहि। त्वन्मुखमवलोक्यैव तपसे जगाम। सुकोशलोपि इदं पितृचरित्रं श्रुत्वा सद्यो विषयविरतोऽजनि। यदुक्तं
भिमानिरतिः संगत्यागः कषायविनिग्रहः । शमदमयमास्तत्त्वाभ्यासस्तपश्चरणोधमः। नियमितमनोवृत्तिर्भक्तिर्जिनेषु दयालुता
भवति कृतिन: संसाराब्धेस्तटे निकटे सति ।। ततो जनयित्रीमनापृच्छ्यैव तस्यैव यतेश्चरणाते तपो जग्राह । मातापि पुत्रशोकादार्तध्यानपरायणा परासुरासीत् । तदनु मगधदेशमध्यवर्तिनि विकटाटवीपरिवेष्टिते मंगलनाम्नि शिलोच्चये पुरोक्षाव्याघ्री किलाजनिष्ट। यः खलु पुत्रादावभीष्टे मृते नष्टे प्रव्रजिते शोकमुपगच्छति तस्यावश्यं दुर्गतिर्भवति । यदुक्तं
मृत्युर्गोचरमागते निजजने मोहेन यः शोककृनो गंधोपि गुणस्य तस्य बहवो दोषाः पुनर्निक्षितम्।
कालुष्य भाव से संतप्त है हृदय जिसका ऐसी सुकौशल की माता जयावती ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया-प्रत्युत् वैमनस्य प्रकट किया। उसकी यह चेष्टा देखकर धाय ने कहा-“हे पुत्र ! इन मुनिराज को तुम अपना पिता जानो। अर्थात् ये तुम्हारे पिता हैं, जो तुम्हारे मुख का अवलोकन करते ही दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर तपश्चरण करने के लिए तपोवन में चले गए।” सुकौशल भी अपने पिता के चारित्र को सुनकर विषयों से विरक्त हो गए। आत्मानुशासन में कहा भी है
“विषयों से विरक्ति, परिग्रह का त्याग, कषायों का निग्रह, शम (समताभाव), दम (इन्द्रियों का निग्रह), यम (यावज्जीवन किसी वस्तु का त्याग करना), तत्त्वों का अभ्यास, तपश्चरण में तत्परता, नियमित मनोवृत्ति, जिनेन्द्र भगवान की भक्ति और दयालुता, ये भाव उसी भव्य प्राणी के हृदय में जागृत होते हैं जिस पुण्यात्मा के संसार-समुद्र का किनारा निकट आ गया है। अर्थात् जिसका संसार-समुद्र समाप्त होकर चुल्लू प्रमाण रह गया है।
इसके बाद सुकौशल ने माता को नहीं पूछकर स्वकीय पिता सिद्धार्थ मुनि के चरण-कमलों में तप ग्रहण कर लिया। अर्थात् घर, परिवार, परिग्रह आदि की ममता को छोड़कर दिगम्बर मुद्रा धारण कर ली।
माता ने पुत्रवियोगजन्य शोक रूप आर्त ध्यान से प्राणों को छोड़ा और मगध देश मध्यवर्ती विकट अटवी से परिवेष्टित, मंगल नामक पर्वत पर पुरोक्षा नामक व्याघ्री हुई। ठीक ही है, जो अज्ञानी जन पुत्रादि इष्ट कुटम्बी जनों के मरने पर, नष्ट हो जाने पर वा दीक्षा ले लेने पर शोक, संताप को प्राप्त होते हैं, आर्तध्यान करते हैं, वे मरकर अवश्य ही दुर्गति में जाते हैं। कहा भी है
"जो अज्ञानी जन स्वकीय कुटुम्बी जनों के मरने पर मोह के कारण शोक करते हैं, उनमें गुण की तो गंध भी नहीं है, अपितु पुन: बहुत से दोष निश्चित हैं। शोकसंताप से दुःख वृद्धि को प्राप्त होता है। धर्म अर्थ, काम और मोक्ष पुरुषार्थ रूप चार वर्ग का नाश होता है। मति का विभ्रम होता है, अर्थात् शोक करने