________________
आराधनासार - ११५
ततः कोपावेशवशंवदया तया गुरुशिष्यौ 'मद्गृहे अस्मिन् पुरे च प्रवेशो न कर्तव्य' इति निषिद्धौ इति जयावतीदुर्वचनकुठारैर्भिद्यमानमपि मुनिमनो न क्षोभमानम्। यदुक्तम्
लोक एव बहुभावभावितः स्वार्जितेन विविधेन कर्मणा।
पश्यतोस्य विकृतीर्जडात्मनः क्षोभमेति हृदयं न योगिनः ।। अथ परमोपशमसर:स्नानशामितकोपतापौ तौ त्वरितं देशांतरमीयतुः।
तत्र च सिद्धार्थो मुनिः गुरुपादांते कानिचित् श्रुतपदानि अभ्यासीत् अज्ञानमयं तमोविनाशमनेषीत् । अथ बहुषु वत्सरेषु अतीतेषु सिद्धार्थो मुनिर्गुरुमापृच्छ्च तामयोध्यामयासीत्। पूजापुरस्सरं सर्वो हि पौरो धर्मार्थी तं मुनिराजं प्राणसीत्। सुकोशलोपि मुनिदर्शनसंभवदमंदानंद: स्वजननीमप्राक्षीत् । मातरस्य दर्शनात् मम मनोऽत्यंत प्रसीदति नेत्रे च तृप्यतस्तदयं कः कस्मादुपागतश्च। माता च कालुष्यवांतस्वाता न
इस प्रकार सेठानी के अनेक प्रकार के अपशब्द सुनकर भी गुरु-शिष्य दोनों सहज स्वभाव में लीन रहे, उसको कुछ भी उत्तर नहीं दिया | तब क्रोध के वशीभूत हुई सेठानी ने कहा, "तुम दोनों गुरु-शिष्य मेरे आंगन में और मेरे नगर में प्रवेश नहीं करना"। जयावती के ऐसे कठोर दुर्वचन सुनकर भी मुनिराजों का मन क्षुभित नहीं हुआ। कहा भी है
"स्वकीय परिणामों से उपार्जित अनेक प्रकार के कर्मों के कारण बहुभावों से युक्त संसारी प्राणियों को देखते हुए मूर्खात्मा (अज्ञानी जनों) का हृदय विकृति को प्राप्त होता है। संसार की अवस्थाओं का अवलोकन करने वाले योगिजनों का हृदय क्षोभ को प्राप्त नहीं होता।
इसके बाद परम उपशम भावरूपी सरोवर में अवगाहना करके शमित किया है कोप और ताप को जिन्होंने ऐसे वे दोनों गुरु-शिष्य शीघ्र ही देशान्तर में चले गए।
वहाँ सिद्धार्थ मुनि ने गुरु के चरणारविन्द की उपासना कर कुछ श्रुतपदों का अभ्यास किया और अज्ञानमय अन्धकार का विनाश किया।
इसके बाद बहुत दिन बीत जाने पर सिद्धार्थ मुनिराज (अपने गुरु) को पूछकर उनकी आज्ञा से अयोध्यानगरी में आये।
मुनिराज के आगमन से आनन्द का अनुभव करते हुए सारे धर्मार्थी पुरवासियों ने पूजा, स्तुतिवन्दना करके मुनिराज को नमस्कार किया।
सुकौशल ने भी मुनिदर्शन से उत्पन्न अमंद आनन्द से युक्त होकर अपनी माता से पूछा- "हे मात ! __इनके दर्शन से मेरा मन अत्यन्त आनन्दित हो रहा है, नेत्र तृप्त हो रहे हैं, इनके मुख-कमल को बार-बार
देखने की इच्छा कर रहे हैं, इसलिए बताओ ये कौन हैं और कहाँ से आए हैं ?"