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सुकुमालोप्यासन्नभव्यत्वात्तत्क्षणसंजातवैराग्यो मुनिमानम्य दीक्षां जग्राह । ततो नगरादूबहिरुद्याने सुकुमालो मुनिर्दिनत्रयं यावत् गृहीतसंन्यासो योगमास्थाय तस्थिवान् तत्रैव वने सा अप्रिभूतिभार्या बहूनि भवांतराणि पर्यटय शृगाली बभूव । अथ तं मुनिमालोक्य भववैरसंबंधेन संस्मृतभवांतरचरित्रा तत्क्षणसमुद्भूतामर्षा सा शृगाली तमारभ्य खादितुं प्रवृत्ता । सुकुमालो मुनिरपि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राविनाभूतचिदानंदध्यानसामर्थ्येन सर्वार्थसिद्धिं जगाम ॥ १ ॥ अथायोध्यापुर्यां सिद्धधर्मार्थः । सिद्धार्थो नाम श्रेष्ठी तस्य मनोवल्लभा वल्लभा जयावती । तयोः पुनः कलाकुशलः सुकोशलोऽजनि । यदुक्तम्किं तेन जातु जातेन मातृयौवनहारिणा ।
परमसाम्यमारूढः
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ॥
प्रसादसदनं नंदनस्य वदनमालोक्य सम्यग्दृष्टिः स श्रेष्ठी समाधिगुमनाम्नो मुनेः पादांते प्राब्राजीत् ।
यदुक्तं
आराधनासार १९३
विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम् । भीतः संसारतो भव्यस्तपश्चरति दुश्चरम् ॥
जिसने जति स्मरण से अपने सारे वृत्तान्त को जान लिया, तत्क्षण जिसको वैराग्य की उत्पत्ति हुई है ऐसे आसन्नभव्य सुकुमाल ने भी मुनिराज के चरणमूल में वैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली और वे नगर बाह्य उद्यान में तीन दिन का संन्यास ग्रहण कर प्रतिमा योग से खड़े हो गये। उसी वन में अग्निभूति की भार्या (पत्नी) अनेक भवों में भ्रमण करके श्रृंगाली ( स्यालिनी) हुई थी।
सुकुमाल मुनि को देखकर वह अत्यन्त कुद्ध होकर उनके समीप आई और जातिस्मरण के द्वारा भवान्तर के बैर को जानकर उसने उनका पैर खाना प्रारम्भ किया। उसके साथ उसके दो बच्चे भी थे।
हे क्षपक ! सुकुभाल परम साम्य भाव पर आरूढ़ थे, शरीर से अत्यन्त निस्पृह थे, शरीर का उनको लक्ष्य भी नहीं था। वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के अविनाभावी चिदानन्द आत्मध्यान के सामर्थ्य से घोरोपसर्ग को सहन कर सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त हुए ।
आत्मकल्याण के इच्छुक हे पत्र ! हे आत्मन् ! भूख-प्यास आदि के कारण आकुल व्याकुल मत होओ। सुकुमाल मुनिराज के समान आत्मध्यान रूपी सुधारस के पान से पुष्ट होकर भूख-प्यास आदि पर विजय प्राप्त करो और शरीर की ममता का परित्याग करो ।
* सुकौशल मुनिराज की कथा
अयोध्या नामक नगरी में धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ को सेवन करने वाला सिद्धार्थ नामक सेठ रहता था। उसके मन को प्यारी लगने वाली जबावती नाम की भार्या थी। उन दोनों के सकल कलाओं में निपुण सुकौशल नामक पुत्र था। ठीक ही है
"माता के यौवन को नष्ट करने वाले उस पुत्र के उत्पन्न होने से क्या प्रयोजन है जिससे वंश की उन्नति नहीं होती है" ।
दुश्चर तप तपते हैं।
प्रसाद (आनन्द) के सदन (स्थान) पुत्र के मुख को देखकर उस सम्यग्दृष्टि सेठ ने समाधियुक्त नामक मुनिराज के चरण कमलों में दीक्षा ग्रहण की। कहा भी है
भव्य जीव संसार से भयभीत हो, काम भोगों से विरक्त हो और शरीर से स्पृहा को (ममता को छोड़कर