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आराधनासार ११२
अथ तन्मातुलेन गुणधराचार्येण सुकुमालसदनस्य पश्चिमायां दिशि वर्तमाने क्रीडोद्याने समागत्य स्थितं । सुकुमालो मुनिदर्शनेनैव दीक्षां स्वीकरिष्यतीति मत्त्वा गृहमध्य एव स्थाप्यते न बहिर्निष्कास्यते कदाचित् । अथ सुकुमालमात्रा मुनिरागत्य प्रोक्तस्त्वया अत्र न स्थातव्यं । तद्वचनं श्रुत्वा मुनिमौनमाश्रित्य स्थितः। अथ प्रभातकत्यायां निशि ऊर्ध्वलोकप्रज्ञप्तिं पठन् मुनिः सुकुमालेनाश्रावि, अहमच्युर्तेद्रो ऽच्युते एतादृशानि सुखान्याप्सि इति प्रहार सुकुम्पलः । ततस्तन्नातिस्रः स्ववृत्तांतो मुनिसमीपीयिवान् । यतिरपि तं धर्मोपदेशामृतेन संतोष्य न्यगदीत् । वत्स तवायुर्दिनत्रयमेव तत्त्वं परलोकसाधनोपायमाचर ।
एक ज्योतिषी वा निमित्तज्ञानी मुनिराज ने उसकी माता से कहा था कि “पुत्र का मुख देखकर पिता दीक्षा ग्रहण करेगा और मुनिराज के दर्शन करके सुकुमाल दिगम्बर मुद्रा को धारण करेगा।" मुनिराज के कथनानुसार सुकुमाल के पिता गृहस्थावस्था का त्यागकर मुनिमुद्रा को ग्रहण कर वन में जाकर घोर तपश्चरण करने लगे ।
पति के दीक्षा ग्रहण कर घर छोड़ तपोवन स्वीकार कर लेने पर सेठानी का हृदय दहल गया और भविष्य में पुत्र भी मुनिराज के मुख का अवलोकन कर भुनिपद को स्वीकार करेगा, ऐसा चिंतन कर वह पुत्र ( सुकुमाल) को घर के मध्य में ही रखती थी, कभी भी घर के बाहर नहीं जाने देती थी तथा घर में कभी मुनिराज का प्रवेश नहीं होने देती थी। ठीक ही है- भोही प्राणी क्या नहीं करता !
सेठानी ने सप्त खण्ड का महल बनवाया, ३२ सुन्दर कन्याओं के साथ सुकुमाल का विवाह किया और निरंतर विचार करती कि मेरा पुत्र घर-परिवार को छोड़कर मुनिं न बनजाय । परन्तु विचार करने मात्र से कुछ नहीं होता, कालादि लब्धि पाकर जो कार्य होता है, वह होता ही है।
विहार करते हुए सुकुमाल के मामा गुणधर आचार्य अपने दिव्य ज्ञान से 'सुकुमाल की आयु बहुत कम है' ऐसा जान कर उज्जयिनी नगरी में आये और सुकुमाल के महल की पश्चिम दिशा में स्थित जिन मन्दिर के उद्यान में उन्होंने चातुर्मास स्थापन किया ।
जब सुकुमाल की भाता को यह ज्ञात हुआ कि मेरे भाई गुणधर आचार्य यहाँ आकर ठहरे हुए हैं तो उसने शीघ्र ही उनके पास जाकर अनुनय-विनय से उनको वहाँ ठहरने के लिये मना क्रिया परन्तु मुनिराज मौन धारण करके बैठ गये। वे अपने ध्यान से विचलित नहीं हुए ।
चातुर्मास की समाप्ति के दिन रात्रि के पिछले प्रहर में मुनिराज ने त्रिलोकप्रज्ञप्ति का पाठ करना प्रारम्भ किया जिसमें तीन सौ तैंतालीस राजू प्रमाण लोक में इस जीवने कहाँ कहाँ भ्रमण किया और किस प्रकार के सुख-दुःखों का अनुभव किया, उसका कथन था ।
उस समय सुकुमाल की निद्रा भंग हुई। उसने सारा कथन सुना, उसे स्मरण हुआ कि मैंने पूर्व भव में १६ वें स्वर्ग में बावीस सागर तक पंचेन्द्रिय सुखों का अनुभव किया, उनसे भुझे तृमि नहीं हुई- अब मानव पर्याय के भोगों से तृप्ति कैसे हो सकती है ?
तत्त्वविचार से उत्पन्न वैराग्य के कारण सूर्य उदय होते ही रस्सी के सहारे सात खण्ड के महल से नीचे उत्तर कर सुकुमाल मुनिराज के समीप आया। मुनिराज ने धर्मोपदेश रूपी अमृत के पान से इसे संतुष्ट किया और कहा - "वत्स ! तेरी आयु तीन दिन शेष है। इस समय तुझे परलोक-साधन के उपाय का आचरण करना चाहिए।"