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आराधनासार - १११
सा च विज्ञातश्रुतरहस्या तौ नमस्कृत्य दीक्षा जग्राह । अनेकधा तपश्चरणं कृत्वा प्राते चतुर्विधाहारपरिहारं च विधाय स्त्रीलिंगं च छित्वा षोडशे स्वर्गेऽच्युतेंद्रोऽजनि । यदुक्तं
यदूर यदुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् ।
तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमः॥ इतश्चावंतीविषये उजयिन्यां सोच्युतेंद्रोऽवतीर्य श्रेष्ठितनूजः सुकुमालनामा बभूव। स पूर्वोपार्जितशुभकर्मणा बहुधा राज्यादिकं प्राप्तवान्। यदुक्तं
राज्यं च संपदो भोगाः कुले जन्म सुरूपता। पाण्डित्यमायुरारोग्यं धर्मस्यैतत्फलं विदुः ।।
पूर्व भव के संस्कार के कारण वह सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनिराज के समीप गई। मुनिराज ने उसको सम्बोधित किया, जिससे उसको जातिस्मरण हो गया। उसने अपने सातभव पूर्व की बात प्रत्यक्ष जान ली। पश्चात्ताप से उसका हृदय दहल उठा। यह संसारी जीव कम बाँधते समय हंसता है परन्तु जब उसका फल आता है तब रुदन करता है, यह नहीं सोचता कि पूर्व बाँधे हुए कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ेगा। मैंने मुनिराज की निन्दा की जिससे कितने दुःख भोगे हैं, अब भी सचेत नहीं हैं।
संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर श्रुत के रहस्य को जानने वाली नागश्री ने मुनिराज को नमस्कार करके दीक्षा ग्रहण की। अर्थात् आर्यिका पद को स्वीकार किया। मुनिराज के समीप तत्त्वों का पठन-पाठन-मनन किया। अनेक प्रकार से तप-नियम-व्रतों का आचरण कर अन्त में चार प्रकार के आहार का त्याग कर सल्लेखनायुत मरण किया और स्त्रीलिंग को छेद कर सोलहवें स्वर्ग में अच्युतेन्द्र पद को प्राप्त
किया।
उसकी आयु वहाँ बाईस सागर की थी। कहा भी है
"जो दूर है, कठिनता से साध्य है और दूरतर व्यवस्थित है वे सब कार्य तप से सिद्ध हो जाते हैं। इसलिये तप ही दुरतिक्रम है अर्थात् तप ही सर्वोत्कृष्ट है।"
सोलहवें स्वर्ग में २२ सागर तक उत्तमोत्तम संसार के भोगों को भोग कर वह आयु समाप्त होने पर स्वर्ग से च्युत होकर अवन्ति देश में स्थित उज्जयिनी नगरी में सुकुमाल नामक श्रेष्ठ पुत्र हुआ। पूर्वोपार्जित शुभ कर्म के उदय से बहुत प्रकार की धनसम्पदा राजकीय भोग प्राप्त किये। ठीक ही है
"राज्य, सम्पदा, पंचेन्द्रियजन्य भोग, उच्च कुल में जन्म, सौन्दर्य, पाण्डित्य और आरोग्य का प्राप्त होना यह सब धर्म का फल है, ऐसा समझना चाहिए।"