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आराधनासार - ११०
मुनिरपि स्तुतौ निंदायां समधीरग्निभूतिना सह तपोवनं जगाम। अग्निभूतिरपि यत्र लघुरप्याज्ञाभंगमाचरति कथितं न पुनः कुरुते तत्र स्थातुं नोचितमिति ज्ञातवैराग्यो दीक्षा गृहीतवान् । अथामिभूतिपन्या वायुभूति-समीप निजगदे, रे यत्त्वया मुनिर्न नमस्कृतस्तेनैव निर्विण्णो भवदीयो बांधवो मुक्तगृहबंधनः प्राव्राजीत्। रे दुरात्मन् शृंगपुच्छविरहितो द्विपदः पशुस्त्वमेतादृशीं लोकवंदितां पदवी प्रापितः तस्यावमाननां विदधानः का गति यास्यसि । एवं दूषितो वायुभूतिरुत्थाय तां कोलताप्रहारेणाताडयत्।।
सा विकटामर्षप्रकर्षान्वितस्वाता निदानमिति बबंध येन क्रमेणाहं त्वया हता तमेव क्रममादिं कृत्वा तैरश्चमप्याश्रित्य त्वा पापिनं भक्षितुमिच्छामि ।
इतश्च वायुभूतिः कुष्टीभूत्वा मृतस्तदनु खरीशूकरीकुकुर्यादिभवान् लब्ध्वा चांडालपुत्री दुर्गंधा समजनि। अग्निभूतिमुनिना सा दृष्टा संबोधिता। मकारत्रयनिवृत्ति कारिता अणुव्रतं ग्राहिता च। तस्य व्रतस्य माहात्म्येन सा मृत्वा ब्राह्मणपुत्री नागश्री नामा बभूव । अथ सूर्यमित्राग्निभूतिमुनिभ्यां संबोधिता पाठिता च।
निन्दा और स्तुति में समभाव रखने वाले सूर्यमित्र मुनिराज अग्निभूति के साथ तपोवन को चले गए।
वहाँ पर जाकर अग्निभूति ने "अहो ! जहाँ पर छोटा भाई आज्ञा भंग करता है, ज्ञानदाता गुरु की अवज्ञा करता है, मेरा कहा नहीं मारता है वहाँ रहमा उलित रहीं है" ऐसा विचार कर दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली।
तत्पश्चात् अमिभूति की पत्नी ने मरुभूति के समीप जाकर कहा-"रे दुरात्मन् ! तूने मुनिराज की अवज्ञा की, उनको नमस्कार नहीं किया-इसलिए तुम्हारे भ्राता ने संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर गृहवास के बंधन को तोड़कर जिनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की है। हे पापी, सींग-पूंछ रहित पशु सदृश तुझको जिसने ज्ञानदान देकर ऐसा महान बनाया, लोकपूज्य बनाया उनकी वन्दना न करके तू उनका अपमान करता है, निन्दा करता है, तेरे समान दूसरा कोई कृतघ्न और पापी नहीं है। ऐसा करने वाला तू दुर्गति में जायेगा।"
इस प्रकार अग्निभूति की पत्नी (भाभी) के समझानेपर अत्यन्त क्रोधित होकर मरुभूति उठा और उसने स्वकीय पादप्रहार से अग्निभूति की पत्नी को जोर से मारा, जिससे मरणान्त पीड़ा का अनुभव करती हुई उसने अपने मन में निदान बंध किया-"कि जिस पैर से तूने मुझे मारा है, तेरे उस पैर को मैं तिर्यञ्चनी होकर खाना चाहती हूँ अर्थात् जब तक तुम्हारे पैर को भक्षण नहीं करूँगी तब तक शान्ति नहीं है।"
तत्पश्चात् मुनिनिन्दाजन्य पाप के उदय से मरुभूति कुष्ठ रोगी होकर आर्तध्यान से मरा और उसका जीव गधी, शूकरी, कुक्करी (कुत्ती) आदि अनेक योनियों में भ्रमणकर तथा भूख-प्यासादि कष्टों को सहन कर कर्मों के कुछ लघु विपाक से चाण्डाल के घर में पुत्री हुआ। उसके शरीर में अत्यन्त दुर्गन्ध आती थी जिसके कारण कोई भी बन्धु उसके समीप बैठना नहीं चाहता था।
एक दिन अग्निभूति मुनिराज ने उसे देखा और अनुकम्पा और पूर्वभव के संस्कार के अनुराग से उसको सम्बोधित किया, धर्म का उपदेश देकर मधु, मांस, मद्य का त्याग कराया और अणुव्रत ग्रहण कराये। व्रत के माहात्म्य से वह मरकर नागश्री नामक ब्राह्मणपुत्री हुई।