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आराधनासार - ९६
भो क्षपक पइसेहि प्रविश तो तदा जइ परिसहपरचक्कभिओ यदि परीषहपरचक्रभीत: कर्मनिर्जरार्थं मुनिभिः परितः सर्वप्रकारेण सह्यंत इति परीषहाः परीषहा एव परचक्रं शत्रुसैन्यं परीषहपरचक्रं तस्माद्भीत: साध्वसाक्रांत: परोषहपरचक्रभीतः यदि त्वं दुःसहपरीषहवैरिवीररजनित भीतिचलितचित्तोसि तदा प्रविश। कं गुत्तितवगुतिं गुप्तित्रयगुप्तिं गोपनं गुप्तिः मनोवाक्कायानां सम्यग्निग्रहो गुप्ति: गुप्तीनां त्रयं गुमित्रयं गुप्तित्रयमेव गुप्निः परीषहशत्रूणामगम्यं दुर्ग चिच्चमत्कारमात्रपरमब्रह्मलक्षणं । अत्र मनो-वचनकायगुमिकारणं परमसमयसारानुचितनमेव। यदुक्तं
अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पैरयमिह परमार्थश्चित्यतां नित्यमेकः ।
स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रन्न खलु-समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति। तथा ठाणं कुण सुसहावे पुनरपि कुरुष्व। किं तत्। स्थानमवस्थान। कस्मिन्। स्वस्वभावे सहजशुद्धचिदानंदैकस्वभावे निजात्मनि । मुहुः शिक्षा यच्छन्नाह । मोक्खगयं कुणसु माणवाणं कुरुष्व । कं ।
मोक्षमार्ग (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र) से च्युत न होने के लिए और कर्मों की निर्जरा के लिए महर्षियों के द्वारा जो सहन की जाती है, वह परीषह कहलाती है।
परीषह परचक्र (शत्रु का समूह) है। परीषह रूपी परचक्र से भयभीत हुए, हे क्षपक ! तू तीन गुप्ति रूपी दुर्ग में प्रवेश कर । अर्थात् जो मानव परचक्र से भयभीत होकर दुर्ग का आश्रय लेता है वह शत्रु को जीत लेता है, वैसे ही परीषह से भयभीत को तीन गुप्ति रूपी दुर्ग का आश्रय लेना चाहिए। जैसे किले का आश्रय लेकर जो अपने स्थान पर शत्रु का लक्ष्य लेकर बाण चलाता है, वह विजय को प्राप्त होता है उसी प्रकार क्षपक! तुम भी तीन गुप्ति रूपी दुर्ग का आश्रय लेकर, स्वरूप में स्थिर होकर मन रूपी बाण को मोक्ष में लगाओ अर्थात् कर्मशत्रुओं का भेदन करो।
इस गाथा में रूपक अलंकार है और उपमा-उपमेय भाव है। परीषह को शत्रु की सेना कहा है। परीषह से मन चंचल होता है, जैसे शत्रुसेना को देखकर मानव भयभीत होता है और चारित्र रूपी संग्रामभूमि को छोड़ना चाहता है। उन परीषह रूपी शत्रुओं से भयभीत क्षपक को सम्बोधित करते हैं कि हे आत्मन्! यदि तू दुःसह परीषह रूपी शत्रुओं से भयभीत है तो परीषह रूपी शत्रुओं के द्वारा अगम्य मन, वचन, काय रूप तीनों योगों का सम्यक्प्रकार से निरोध करने रूप तीन गुप्ति रूपी किले में प्रवेश कर । वा चिच्चमत्कार मात्र परम ब्रह्म लक्षण तीन गुप्ति रूप दुर्ग का आश्रय ले । वा मन, वचन, कायरूप तीन गुप्तिकारणभूत परम समयसार का चिन्तन कर। सो ही समयसार कलश में अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है
अत्यधिक दुर्विकल्प के बोलने से क्या प्रयोजन है; अल-अलं (उन विकल्पों की चिंता छोड़ो)। नित्य एक परमार्थ का ही चिन्तन करो। स्वकीय रस से परिपूर्ण ज्ञान से विस्फूर्त मात्र समयसार से अन्य दूसरी कोई वस्तु नहीं है। सर्व कल्याणकारी समयसार (परमशुद्ध चिन्मात्र चैतन्य) का चिन्तन ही सर्वोपरि है।
आचार्यदेव बारम्बार शिक्षा देते हुए कहते हैं कि हे आत्मन् ! सहज शुद्ध चिदानन्द एक स्वभाव निज आत्मा में स्थान करो, रमण करो। अपने आपको स्थिर करो और स्वकीय मन रूपी बाण को, सकल