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आराधनासार-९५
दुःखाणं दुःखानां अनंतसंसार-संभवसकलाकुलत्वोत्पादकत्वात्मकलक्षणानां णिलया निलया: स्थानानि तद्रूपवस्तुसमाश्रयत्वात् ते चारित्रभोक्तारः भवंति यस्मादेव तस्मादिहलोकफलहानिमवलोक्य मा चारित्रं त्यजंतु मुनयः परिणामपरावर्तनतया तत्क्षणविध्वंसत्वात् किं मे परीषहवराकाः करिष्यति इति दृढतरं चित्तं विधाय परीषहदुःखमवगणय्य शुद्धपरमात्मानं भावयेति तात्पर्यम् ।।४४ ।।।
अथ गाथायाः पूवाधेन याँदे परीषहेभ्यो भीतस्तदा गुमित्रयमेव दुर्गमाश्रय अपरार्धेन च मोक्षगतं मनोवाणं विधेहीति शिक्षयति
परिसहपरचक्कभिओ जइ तो पइसेहि गुत्तितयगुत्तिं । ठाणं कुण सुसहावे मोक्खगयं कुणसु मणवाणं ॥४५॥ . परीषहपरचक्रभीतो यदि तदा प्रविश गुप्तित्रयगुप्तिम्।
स्थानं कुरुष्व स्वस्वभावे मोक्षगतं कुरुष्व मनोवाणम् ।।४५ ।।
चारित्ररूपी रणभूमि को छोड़ देता है, चारित्र का. नाश करता है, वह इस लोक में सज्जनों के मध्य उपहास का पात्र बनता है और दुर्जन जनों के द्वारा अंगुली उठाकर बताना, भ्रू विकार, अपशब्द और धिक्कार का पात्र होता है। अर्थात् इस लोक में मानव इसका तिरस्कार करते हैं, इसे अपशब्द कहते हैं और धिक्कार देते हैं। चारित्र का घात करने वाला परलोक में अनन्त संसार के कारणभूत आकुलता-उत्पादक अनन्त दुःखों का भोक्ता बनता है। चारित्र आत्मा का गुण है अतचारित्रधारी मानव अनन्त सुख का भोक्ता बनता है। इसलिए चारित्र के घात से होने वाली इस लोक में अपयश और पर-लोक में अनन्त दु:खों की पात्रतारूप हानि को देखकर मुनिगण चारित्र को नहीं छोड़ें। परिणाम के परिवर्तन से क्षणध्वंसी होने से यह परीषह मेरा क्या करेगी। अर्थात् परीषह का अनुभव उपयोग से होता है, उपयोग पलट जाने पर बेचारी परीषह कुछ नहीं कर सकती। ऐसा विचार कर अपने चित्त को दृढ़ कर के परीषह सम्बन्धी दुःखों की तरफ लक्ष्य न देकर शुद्ध परमात्मा की भावना भानी चाहिए, शुद्धात्मा का ध्यान करना चाहिए। क्योंकि शुद्धात्मा का ध्यान ही संसार-दुःखों का नाशक है ।।४४ ।।
अथ-गाथा के पूर्वार्ध में कहा है कि यदि आत्मन् ! तू परीषह रूपी भटों (योद्धाओं) से भयभीत है तो तीन गुप्तिरूपी किले का आश्रय ले। अपर आधीगाथा से कहा है कि अपने मन रूपी बाण को मोक्षस्थान में कर, मोक्ष में लगा। ऐसी आचार्यदेव शिक्षा देते हैं
हे क्षपक ! यदि तुम परीषह रूपी परचक्र से भयभीत (आकुलित) हो तो तीन गुप्ति रूपी दुर्ग (किले) में प्रवेश करो। तथा अपने निज स्वभाव में स्थान करो, स्थिरता करो और मन रूपी बाण को मोक्षगत करो। अर्थात् मन का लक्ष्य मोक्ष ही होना चाहिए ॥४५॥