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अनासा. ३
तीव्र वेदनाक्रांतो यदि परमोपशमशालिनीं भावनां करोषि तदा कर्माणि हंतीत्याचष्टे
अइतिव्ववेयणाए अकंतो कुणसि भावणा सुसमा । जड़ तो णिहणसि कम्मं असुहं सव्वं खणद्वेण ॥ ४३ ॥ अतितीव्रवेदनाया आक्रान्तः करोषि भावनां सुसमां । यदि तदा निहंसि कर्म अशुभं सर्वं क्षणार्धेन ॥ ४३ ॥
अइतिब्ववेयणाए अतितीव्र वेदनया अतिशयेन तीव्रा कठोरा दुस्सहवेदना क्षुत्पिपासादिपरीषहसमुत्पन्न - मनोवाक्कायकदर्थनासातया अक्कंतो आक्रांत पीडितः यदि त्वं भी क्षपकपुरुष सुसमा सुसमा सुष्ठु अतिशयेन समा विग्रहादिषु ममेदमस्याहमित्याग्रहा संग्रहीतपरिणामनिग्रहणेन रुग्जरादिविकृतिर्न में जसा सा तनोरहमितः सदा पृथक् मिलितेपि सति खेऽविकारिता जायते न जलदैर्विकारिभिरित्यादिसूक्तिपरंपराविचारिनीरपूरणरागद्वेषमोहसंभवसमस्तविभावपरिणामसंकल्पविकल्पलक्षणजाज्वल्यमानाग्निनिःशेषेणोपशम्य चित्तस्य चिद्रूप शुद्धपरमात्मनिस्थितिलक्षणा या सुसमा तां सुसमा भावणा भावनां मुहुर्मुहुश्चेतसि अनित्याद्यनुप्रेक्षाचिंतनलक्षणां जड़ कुणसि यदि करोषि तो तदा काले असुह अशुभं सव्वं सर्व कम्मं घातिकर्मचतुष्टयस्वरूपं सर्वमशुभं कर्म खणद्वेण क्षणार्धेन अंतर्मुहूर्तेन पिसि निहंसि 'यदि तीव्र वेदना से आक्रान्त होकर भी परम उपशमशालिनी भावना करता है तो कर्मों का नाश करता है'- इसी बात को आचार्य कहते हैं
हे आत्मन् ! यदि तुम तीव्र वेदना से आक्रान्त होकर सुसम (स्वात्मचिंतन) भावना करते हो तो आधे क्षण में (बहुत कम काल में ) अशुभ कर्मों का नाश करते हो अर्थात् शीघ्र तुम्हारे कर्मों का नाश होगा । ४३ ।
हे क्षपक ! भूख-प्यास आदि परीषह से उत्पन्न, मन-वचन-काय को कदर्थन ( पीड़ित ) करने वाली तीव्र असातावेदनीय कर्म से पीड़ित हुआ तू सम्यग् भावना कर और शरीरादिक पदार्थों में 'ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ' इस प्रकार के विचारों से संगृहीत परिणामों का निग्रह कर। वास्तव में रोग बुढ़ापा आदि विकृति मेरी नहीं है, ये शरीर के विकार हैं, मैं शरीर रहित हूँ, शरीर से भिन्न हूँ | विकारी बादलों के द्वारा एकक्षेत्र अवगाही होने पर भी नभस्थल विकारी नहीं होता है; उसी प्रकार शरीर के साथ एकक्षेत्रावगाही होने पर भी यह शरीर आत्मा को विकृत नहीं कर सकता, आत्म स्वभाव का नाश नहीं कर सकता । इत्यादि विचार रूप जल से अनादिकालीन राग द्वेष मोह से उत्पन्न सारे विभाव परिणाम संकल्प, विकल्प लक्षण जाज्वल्य मान अग्नि को विशेष रूप से शांत करके चित्तको शुद्ध चिद्रूप परमात्मा में स्थिर कर । शुद्ध आत्मभावना में लीन हो ।
हे क्षपक ! बार-बार अनित्यादि बारह अनुप्रेक्षाओं का चिंतन करो। इस प्रकार के चिंतन से सर्व अशुभ घातिया कर्मों का अन्तर्मुहूर्त में नाश करेगा। अर्थात् शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न वीतराग भावों में स्थिर हो जाने पर चार घातिया कर्मों का नाश कर शीघ्र ही केवलज्ञान का स्वामी होगा।