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आराधनासार-९१
प्रविशति गच्छंति पूर्वं ताकिमपि वैराग्यमात्र प्राप्य समस्तदेहेंद्रियविषयजन्यसुखपुत्रमित्रकलत्रं परित्यज्य ख्यातिपूजालाभाद्यैहलौकिकस्वर्गापवर्गरूपपारलौकिककमनीयसुखसंपत्तिदायिनीं जिनराजदीक्षा प्राप्ता ये तत्र दुर्धरतपोनुष्ठानं विलोक्यतो भीता वयमीदृशमाचरितुमक्षमाः पुनस्ते देवशास्त्रगुरुचतुर्विधसंघविद्यमानात्तप्रतिज्ञा परिहाय चतुर्गतिक संसारकूपपतनभीतिमगणयंतः पुनरपि मनोवाक्कायकदर्थनसमर्थनानाविधदुःखजलसंभारभरितकृषिवाणिज्यादिगृहल्यापारपारवार कल्लोल दोलायमानाः क्वापि क्वापि पंचेंद्रियविषयजनितसुखजलगतस्थलेषु विश्रमति पुनरपि तत्फलेनानंतसंसारं पर्यटन्ति। एवं चेतसि विज्ञाय संसारभीति चित्ते समारोप्य जिनराजदीक्षा नीत्वा देहममत्वपरिहारेण दुर्धरपरीषहजयं कृत्वा परमात्मानमाराधयत इति तात्पर्यम् ॥४१॥
ननु परिषहसुभटैः पराभूयमानो मुनिः केनोपायेन तान् जयतीति पृष्टः सन्निमा भावानां सद्धेतुमंतरंगकरे कारयति
दुक्खाई अणेयाइं सहियाई परवसेण संसारे। इण्हं सवसो विसहसु अप्पसहावे मणो किच्चा ॥४२ ।।
दु:खान्यनेकानि सोढानि परवशेन संसारे । इदानीं स्ववशो विषहस्व आत्मस्वभावे मनः कृत्वा ।।४२ ।।
ग्रहण की गई प्रतिज्ञा को छोड़कर चतुर्गति रूप संसार-कूपपतन के भय को नहीं गिनते (समझते) हुए पुनः मन वचन काय का कदर्थन करने में समर्थ, नाना प्रकार के दुःख रूपी जल के समूह से भरे हुए, खेतीव्यापार आदि गृहस्थारंभ रूपी समुद्र की कल्लोलों से तरंगित, कहीं-कहीं पंचेन्द्रियजन्य सुख रूप जलगत स्थल में विश्राम लेते हैं अर्थात् जैनेश्वरी दीक्षा छोड़कर गृहस्थारम्भ को स्वीकार करते हैं और उस सुखस्वादन के फलस्वरूप अनन्त संसार में भ्रमण करते हैं। हे क्षपक ! इन्द्रियसुख-स्वाद के कारण जीव संसार में भ्रमण करता है, ऐसा मन में विचार करके संसार से भयभीत हो, जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण करके, देह से ममत्व को छोड़कर और दुर्धर परीषह रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके परमात्मा की आराधना करनी चाहिए ॥४१॥
परोषह रूपी सुभटों के द्वारा पराजित वा तिरस्कृत हुए मुनि किस उपाय से उन परीषहों को जीतते हैं? ऐसा पूछने पर जिस भावना के बल से परीषहों को जीतते हैं उन भावनाओं को हेतु पूर्वक अंतरंग में कराते हैं अर्थात् उन भावनाओं का कथन करके अंतरंग में उतारने का प्रयत्न करते हैं
हे क्षपक ! हे आत्मन् ! तूने परवश (कर्मों के वश) होकर इस संसार में अनेक दुःखों को सहन किया है। इस समय स्ववश हो आत्मस्वभाव में मन को स्थिर करके कष्टों को सहन कर ।।४२ ।।