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आराधनासार - ९०
न केवल परीषहसुभटा ज्ञातव्या किंतु ते गरीषहा जेयत्वा जेतव्याः। केन । मुणिणा मुनिना । केन करणभूतेन | वरउवसमणाणखग्गेण वरोपशमज्ञानखड्गेन बरोपशमज्ञान एव रागद्वेषाभाव एव खड्गस्तेन । एतेन परीषहान् सर्वान् जित्वा क्षपकः शुद्धात्मानं ध्यायतीति रहस्यं ॥४०॥ संन्याससंग्रामांगणे परीषहसुभटैर्निराकृताः केचिद्धीनसत्त्वाः शरीरसुखं शरणं प्रविशंतीत्यादिशति
परिसहसुहडेहिं जिया केई सपणासआहवे भग्गा। सरणं पइसति पुणो सरीरपडियारसुक्खस्स ।।४१।।
परीषहसुभटैर्जिता केचित् संन्यासाहवाद्भग्नाः ।
शरणं प्रविशति पुनः शरीरप्रतीकारसुखस्य ||४१॥ परिसहसुहडेहिं जिया परीषहसुभटैर्जिता: विनिर्जिताः केचित् चारित्रमोहोदयेन प्रच्छादितवृत्ता रुद्रादयो मुनयः सण्णासाहवे संन्यासाहवात् सर्वसंगपरित्यागलक्षणः संन्यासः चरित्रानुष्ठान स एवाहवः संग्राम: ऋषभादिभिर्वीरपुरुषैः समाश्रितत्त्वात् तत्सहदीक्षितचतु:सहस्रनरेंद्रादिकातरपुरुषः परित्यजनत्वात् सामान्यैः श्रवणमात्रत्रासोत्पादकत्वात् नानानशनरसपरित्यागादिव्रतानुष्ठानकांडाद्यौः कायक दर्थनत्वात्, तस्मात्संन्याससंग्रामात् भग्गा भग्नाः पलायिता; परीषहान् सोढुमशक्ताश्चारित्ररणभूमिं परित्यज्य गता इत्यर्थः। ततो नष्टास्ते क्व गच्छंतीति पृष्टे प्रत्युत्तरमाह। सरीरपड़ियारसुक्खस्स शरीरप्रतीकारसुखस्य शरीरस्य निजदेहस्य प्रतीकार; प्रावरणभोजनादिविषयस्तदेव सुखं तस्य सरणं शरणमाश्रय पुनः पविसंति
हे क्षपक ! इन बावीस परीषहों रूपी सुभटों को केवल जानना ही नहीं है, अपितु उत्कृष्ट उपशम भाव (रागद्वेष का अभाव) और सम्यग्ज्ञान रूपी तलवार के द्वारा इन परीषह रूपी भटों को जीतना चाहिए।
हे महात्मन् ! इन परीषहों की तरफ लक्ष्य नहीं देकर स्वकीय शुद्धात्मा का ध्यान करो। स्वकीय स्वरूप में लीन होकर अपने स्वरूप में रमण करो ॥४० ।।
कोई हीन शक्ति वाले क्षपक संन्यास रूपी संग्रामांगण में परीषह रूपी सुभटों के द्वारा तिरस्कृत होकर(वा भयभीत) होकर शरीरसुख की शरण में जाते हैं उनको संबोधित करते हुए आचार्य आदेश देते हैं
संन्यास रूप रणभूमि को छोड़कर रुद्रादि मुनि कहाँ गये थे? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं कि-शरीर का प्रतिकारक (उपकारक) वस्त्र-भोजनादि विषयसुख है, उस सुख की शरण में चले जाते हैं; सांसारिक सुख का आश्रय लेते हैं।॥४१॥
पूर्व में कोई प्राणी किसी कारणवश वैराग्य को प्राप्त कर सम्पूर्ण शरीर, इन्द्रिय-विषयजन्य सुख और पुत्रमित्र कलत्र (स्त्री) आदि परिवार को छोड़कर ख्याति, पूजा, लाभ आदि इह लौकिक और स्वर्ग एवं मोक्ष रूप पारलौकिक कमनीय (मनोज्ञ) सुख सम्पदा को देने वाली जैनेश्वरी दीक्षा (दिगम्बर मुद्रा) को धारण करते हैं। तथा उस दीक्षा में कथित दुर्धर तप अनुष्ठान को देखकर भयभीत हो जाते हैं। अहो! हम इस दुर्धर तप का आचरण करने में समर्थ नहीं हैं, ऐसा विचार कर वे देव, शास्त्र, गुरु और चतुर्विध संघ के समक्ष