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आराधनासार-८१
चरणाधीनत्वान्निजविनाशशंकामगणयंत प्रतिसमयं दृष्टश्रुतानुभूतपरपदार्थे प्रवर्तमानं परिणाम संकोच्य पुन:पुनः स्वस्वरूपस्थापनलक्षणेन दुःखेन जेतुं शक्या दुर्जयाः। तत्क्षणमनोविक्षेपकारित्वात् सुष्टु अतिशयेन दुर्जया: सुदुर्जयाः। नन्वादिमगुणस्थानत्रयं तत्र कषायसद्भावेपि किमर्थं परित्यक्तं श्रीमद्भिरितिचेत्। युक्तमुक्तं । परं तत्रादिमगुणस्थानत्रयेपि कषायान् जेतुमनलं त्रप्लवो जीवाः तदृढतराधारस्वरूपप्ररूपणनिपुणमिथ्यात्वैकातपत्रसाम्राज्यात् तत्पक्षक्षपणप्रतिपक्षतादक्षसम्यक्त्वदृढतरप्रौढेरभावाच्च । जेहिं यैः कषायैः भमाडिजंतो भ्राम्यमानं सन् तिहुयणं त्रिभुवन विश्व सयलं समस्तं भमड़ भ्रमति पर्यटति। क्व। चउगइ भवसागरे चतुर्गतिभवसागरे देवनरतिर्यग्नरकगत्युपलक्षितसंसारसमुद्रे । कथंभूते। भीमे रौद्रे विविधकर्मग्राहजनितदुःखानुभवनत्वात् इति मत्त्वा क्षपकेण शुद्धपरमात्मानं सिषेविषुणा दुर्जयाः कषाया एव पूर्व तिरस्करणीया इति तात्पर्यार्थः ।।३६ ॥
से ये कषायें अपनी इच्छानुसार आचरण करने से) निज विनाश की शंका को नहीं गिनती (मानती) हुई प्रतिक्षण अनादि काल से दृष्ट, श्रु। और अनुभूत पर-पदार्थों में प्रवर्तमान परिगानों को संकुचित (रोक) कर के पुन:पुनः स्वस्वरूप में स्थापन लक्षण से कठिनता से जीती जाती हैं।
__ अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक बड़ी कठिनता से परपदार्थों में जाने वाले परिणामों को रोककर अपने स्वरूप में स्थापन करने पर ही कषायों पर यह जीव विजय प्राप्त कर सकता है, इसलिए ये कषायें दुर्जय हैं।
प्रतिक्षण मन को विक्षिप्त करने वाली होने से 'सु' अतिशय से जीतने योग्य होने से सुदुर्जय है।
शंका - प्रथम गुणस्थान से ही कषायों का सद्भाव है तो फिर तीन गुणस्थानों को छोड़कर चतुर्थ गुणस्थान से लेकर उपशांत कषाय तक (चतुर्थ गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक) कषायों को जीतने वाला क्यों कहा गया है?
उत्तर - आदि के तीन गुणस्थानों में कषायों के दृढ़तर आधार के स्वरूप का निरूपण करने में चतुर मिथ्यात्व का एकछत्र राज्य होने से और कषायों के पक्ष का नाश करने में दक्ष सम्यग्दर्शन की दृढ़तर प्रौढ़ता का अभाव होने से यह जीव आदि के तीन गुणस्थानों में कषायों को जीतने में समर्थ नहीं होता है। अर्थात् आदि के तीन गुणस्थानों में कषायों के आधारभूत मिथ्यात्वरूपी राजा का एकछत्र राज्य है और कषायों के प्रतिपक्षी सम्यग्दर्शन का अभाव है इसलिए इन तीन गुणस्थानों में कार्यों को जीतने का सामर्थ्य नहीं है। चतुर्थ गुणस्थान से ही कषायों को पछाड़ने का सामर्थ्य आता है। इन कषायों के वशीभूत हुआ यह सम्पूर्ण लोक (तीन लोकों में स्थित अनन्तानन्त प्राणी) विविध प्रकार के कर्मरूप नक्र-चक्रों से भयंकर चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण कर रहा है। जन्म-मरण के दुःखों को भोग रहा है। इसलिए निज शुद्ध परमात्मा की आराधना वा प्राप्ति के इच्छुक क्षपक को सर्वप्रथम दुर्जय कषायों का तिरस्कार करना चाहिए। उनको जीतने का प्रयत्न करना चाहिए ।।३६॥