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आराधनासार - ८२
ननु यावत्कषायवान् क्षपकः कषायान्न हंति तावत्किं किं न स्यादित्याह
जाम ण हाइ कसाए स कसाई णेव संजमी होइ । संजमरहियस्स गुणा ण हुंति सव्वे विसुद्धियरा ।। ३७ ।।
यावन्न हंति कषायान् स कषायी नैव संयमी भवति । संयमरहितस्य गुणा न भवंति सर्वे विशुद्धिकराः ॥ ३७ ॥
अत्रान्वयक्रमेण व्याख्यानं । स कसाई स पूर्वीकलक्षणः क्षपकः कषायीभूतः सन् जाव यावत्कालं कसाए कषायान् क्रोधादिलक्षणान् ण हणड़ न हंति न निराकरोति तावदित्यध्याहारः 'यत्तदोर्नित्यसंबंधमितिवचनात् ताव तावत्कालं संजमी संयमी संयमयुक्तः ण होइ न भवत्येव एवेत्यत्र निचयार्थे । कुतः संजमरहियस्स संयमरहितस्य पुरुषस्य सव्वे गुणा सर्वे गुणाः सम्यग्दर्शनादयो गुणा विसुद्धियरा विशुद्धिकरा: परिणामशुद्धिकारिणो पण हुंति न भवंति अतः परिणामशुद्धये कषायविजयेन संयममूरीकृत्य परमात्मानमाराधयत इति तात्पर्यम् ॥३७॥
ननु भगवन् कषायेषु किं करणीयं भवति मुनिभिस्तत्कृते किं फलं स्यादिति पृष्ठे प्रत्युत्तरमाहतम्हा णाणीहिं सया किसियरणं हवइ तेसु कायव्वं । किसिसु कसासु अ सवणो झाणे थिरो हवइ ॥ ३८ ॥
'जब तक कषायवान क्षपक कषायों का नाश नहीं करता तब तक क्या नहीं होता ?' इस शंका का निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं
जब तक यह संसारी जीव कषायों का नाश नहीं करता, तब तक वह कषायी, संयमी नहीं हो सकता और संयमरहित के विशुद्धि करने वाले सारे गुण प्रगट नहीं होते हैं । । ३७ ॥
जब तक यह क्षपक कषायों के वशीभूत हैं, क्रोधादि कषायों का निराकरण नहीं करता है तब तक संयमी नहीं बन सकता, क्योंकि कषायें संयम का घात करती हैं। जो संयम रहित है उसके परिणामों को विशुद्ध करने वाले सम्यग्दर्शन आदि गुणों का प्रादुर्भाव नहीं होता अर्थात् वह क्षपक सम्यग्दर्शन आदि आराधनाओं का आराधक नहीं हो सकता इसलिए क्षपक को कषायों का विजयी होकर संयम को स्वीकार करना चाहिए और विशुद्ध भावों से निज शुद्धात्मा का ध्यान करना चाहिए ॥ ३७ ॥
हे भगवन् ! मुनियों को कषाय कृश करने चाहिए परन्तु कषायों को कृश करने से क्या फल प्राप्त होता है? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं
ज्ञानीजनों को प्रयत्नपूर्वक कषायों को कृश करना चाहिए। क्योंकि कषायों के कृश होने पर ही मुनिराज ध्यान में स्थिर हो सकते हैं ॥ ३८ ॥