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________________ रत्नचूडा मणिचूड रत्नचूडा मणिचूड़ - रचूडा 4 F पवनंजय -- मणिचूड - रत्नचूडा - w 40 ओह इस गीत की वस्तु के उपोद्घात से मुझे उस उन्मत राजपुत्र की कुछ याद आई है, जो कि उस प्रकार की भी उस प्रिया अंजना को विरहयुक्त करके इतने समय तक विद्यमान है । विरह से थकी हुई अंजना के इतने काल तक छोड़कर स्थित हुआ पवनंजय वास्तव में उन्मत्त हो गया है | ||3|| पुरुष सर्वथा निष्ठुर होते हैं । प्रिये, ऐसा मत कही । यहाँ पर भाग्य को ही उलाहना देना चाहिए । अन्यथा कहाँ तो वह महेन्द्र पुत्री और कहाँ यह गहन मातङ्गमालिनी नामक वन । दूसरे जन्म का ही कर्मपरिपाक अवश्य ही अनुभाव्य होता है | || || यही है अन्यथा उस जैसी सहचरी के बिना वह इतने समय तक कैसे रह सकता है ? मैं नवीन परिचित होने पर भी इतने समय को भी न देखती हुई अत्यधिक उत्कण्ठिता हूँ । सर्वथा वह पुत्र महान् प्रभाव वाला होगा, जिसके जन्म से उसने वनवास के दुःख के चिताया बात यही है । (स्पर्श का अभिनय कर) इस समय प्रत्येक नए जल कर्णों की धूलि को ले जाने वाली सुन्दर वायु के द्वारा धीरे से वर्षा के द्वारा यह वीणातन्त्री भीग रही है। तो यहाँ से हम दोनों चलते हैं । ॥ ॥ आर्यपुत्र की जो आज्ञा । ( उठकर दोनों निकल जाते हैं) मिश्रविष्कम्भ (अनन्तर उन्मत्त वेष वाला पवनंजय प्रवेश करता है) (कोप सहित) अरी पापिन् मेरे प्रभाव से अनभिज्ञ अपमान करने वाली मातङ्गमालिन इधर उधर इस प्रकार मेरे द्वारा बहुत समय तक ढूँढने पर भी धृष्टता के कारण चुराई हुई मेरी सहचरी को नहीं दिखलाती हो तो इसमें सन्देह नहीं कि इस समयलात् तुम्हें इस बाण के अग्रभाग से निकली हुई ज्वाला से जटिल दावाग्नि जला देगी | ॥6॥ (प्रत्यंचा खींचकर बाण चढ़ाना चाहता है। हंसकर ) मत डरो । बिना स्नान के ही हम लोगों का आवेग कैसा ? इस प्रकार अस्थिर प्रकृति मातङ्गमालिका की चुराने की घृष्टता कैसे हो सकती हैं । हमारे प्रत्यञ्चा के घोष मन्त्र से ही यह जंगल सब ओर से व्याकुलित है क्योंकि गुफी के अग्रभाग से फैलने वाली बड़ी कठिनाई से सुनी जाने वाली प्रतिध्वनि से स्पष्ट रूप से कन्दरा को फोड़ने वाला पर्वत तत्क्षण क्रन्दन कर रहा है। ये भय से विह्वल सिंह वन को छोड़कर अष्टा पदों के साथ यहाँ से शीघ्र ही कहीं भाग रहे हैं | |7| ( सामने देखकर) ओह, यह हमारा कालमेघ है । -
SR No.090049
Book TitleAnjana Pavananjaynatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size1 MB
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