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________________ 39 पवनंजय मेरे शरीर के स्पर्श की सौगन्ध है। कार्य की निष्पत्ति के लिए इस समय आउने । मैं भी कु‌झ‌ने आने की कहीं ना करता है ! (आँखों में आँसू भरकर ) क्या करूँ (मन ही मन अस्तु ! मैं भी उन्हें खोजने के लिए समस्त विद्याधरों को यहाँ लाता हूँ । विदूषक - ( चला जाता है) पवनंजय ( उठकर) अंजना को खोज के लिए मातङ्गमालिनी नामक वन में जाता हूँ। चमूर तथा लवलिका जब तक बम्धुजन आयेगे, तब तक क्या स्वामी प्रतीक्षा नहीं करेंगे ? पथनंजय मुरक पवनंजय - रत्नचूहा दोनों Me - - षष्ठो अङ्क ( अनतर वीणा बजाते हुए गन्धर्व मणिचूड और सहचरी रत्नचूडा प्रवेश करते हैं) मणिचूड बादलों के प्रथम उदय होने पर नए जल बिन्दु के गिरने से कमल के बन्द होने पर छिपी हुई सहचरी को विरहातुर भरा चारों ओर से ढूंढ रहा है | || || मेघ के समय वधू कमलिनी को देखो। यह प्रिय से वियुक्त हुई सी यहाँ म्लान पड़ रही है । उत्कट काम के शणों के वर्षा काल में सुदुस्सह होने पर कौन धीर स्त्रीसनागम को छोड़कर जीवित रहते हैं ||2|| W विद्याधर लोग भी मातङ्गमलिनी में प्रवेश करेंगे हो । उनको हमारा प्रवेश बतलाने के लिए आप यहीं ठहरें । स्वामी लोग स्वच्छन्दवारी होते हैं । ( प्रणाम करके लवलिका के साथ चला जाता है ) (परिक्रमा देता हुआ, पीछे से देखकर) क्या कालमेत्र इस समय भी मेरा अनुसरण कर रहा है। भद्र ! तुम वन में नए सल्लकी के किसलयों का आस्वादन करते हुए पुनः पद्मसरोवर में स्नान करने के सुखों से अपने आपका मन बहलाते हुए हथनियों और बच्चों के साथ अपनी इच्छानुसार बिहार करने के उत्सवों को पाकर हस्तियों के स्वामी तुम अपने समूह के अधिराज्य की लक्ष्मी का इच्छानुसार सेवन करो | ||30|| क्या बात है, यह भी असाधारण प्रेम के कारण मेरा ही अनुसरण कर रहा | तो इधर आओ । (परिक्रमा देकर सामने देखकर) जहाँ पर वह प्रिया गयी है, वह मातङ्गमालिनी अटबी आ गई है। तो यहाँ पर घूमता हुआ मृगनयनी को खोजता हूँ । ( चला जाता है ) इस प्रकार श्री हस्तिमल्ल विरचित अंजना पवनंजय नामक नाटक में पन्चम अङ्क समाप्त ।
SR No.090049
Book TitleAnjana Pavananjaynatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimall Chakravarti Kavi, Rameshchandra Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size1 MB
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