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[अहिंसा की बिजय
था । उसने यह भी जानकारी प्राप्त कर ली थी कि "जिस दिन से अर्थात् अश्विनसुदी प्रतिपदा से देवी की पूजा प्रारम्भ होती है उमी दिन से देवी की बलि बन्द होने पर्यन्त आचार्य श्री के उपवास चालू होने वाले हैं," कितने ही लोग "उनकी इच्छा प्रमाण प्रयत्न भो करने वाले हैं। इससे उसी समय से उसे यह चिन्ता भी कि इस साल का यह उससे पार पड़ेगा ? पर उपाय क्या था ? वीतराग साचू की आत्मशक्ति से सब ठण्डे पडे थे । स्वयं माणिकदेव का उत्साह भी हर वर्ष जैसा नहीं था । या यों कहो बह अर्द्धमतक सा हो रहा था।
यात्रा की तैयारी चालू श्री। परन्तु बेचारी मृमावती एक अपराधी की भौति राजमहल को चार दिवारी में बन्द हो रही थी। बन्दी को चैन कहाँ ? सुख शान्ति कहाँ ? यही हाल था उस बेचारी का। उसे अपनी प्रतिज्ञा निभाने को छटपटी लगी थी। उसे बाहर जाने की मनाही होते ही वह महसा किसी से बात भी नहीं करती थी। रात-दिन विचारमग्न रहती। "देवी की बलि प्रथा को मैं बन्द करने का प्रयत्न करू शी" ऐसा उसने महेन्द्र को बचन दिया था। परन्तु बाहर भी जो निकल नहीं सकती, ऐसे शक्त बन्दीखाने में पडकर 'सिवाय रोने के वह क्या करती? उससे अन्य क्या हो सकता था !
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हिंसा से प्रात्मा का पतन
होता है, इससे बचना चाहिए। HYANEYAKARAKIXKATATE