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अहिंसा की विमय]
दसरा दिन प्राया। प्रातःकाल से मल्लिपुर के घर-घर में एक ही चर्चा चल रही थी। जिन-जिन ने देवी की बलि बन्द करने की प्रतिज्ञा को थी उन उन के घरों में रात्रि को प्राग लग गई ! कुछ लुट गये । कुछ भस्म हो गये । किसी का पूरा-पूरा नुकसान हो गया। यह देवी का ही प्रकोप है। ऐसा भोले-अज्ञानी लोगों को लगने लगा। इस प्रकार की घटनायें पहले कितनी ही बार हो चुकी थीं। पद्मनाभ राजा ने इस विषय में अपने पहरेदारों से बहुत कुछ चौकसी कराई थी, परन्तु अपराधियों का पता नहीं लगा, कोई गिरफ्तार भी नहीं हो सका । इसका कारण था कि मायाचारी धूर्त शिरोमरिण माणकदेव ने कोतवाल सरीखे अनेक राज्य कर्मचारियों को वश में कर रक्खा था । इसो से अपराध कभी भी प्रकट नहीं हो पाते थे । 'रक्षक ही भक्षक हों तो जीवन कहाँ सुरक्षित, यह दशा थी वहाँ को । फलतः लोगो का" यह विश्वास जम गया, कि सभी पद्रवों का मूलस्रोत कालीमाता का प्रकोप ही है।
जो हो, सब कुछ नुकसान होने पर भी प्रतिज्ञाबद्ध आठों वीरों का निश्चय तनिक भी विचलित नहीं हमा। वे सुमेरु पर्वत की भांति अपने निश्चय पर अटल थे। प्राण गये तो भी हम इस काम से नहीं हटेंगे, पीछे कदम नहीं घरेगे, ऐसा उन्होंने दृढ़ संकल्प बनाये रक्खा । वे प्राचार्य श्री के पास आ बैठे थे। पद्मनाभ ने लोगों पर रोक लगादी, "कोई मुनि का उपदेश सुनने नहीं जाये" राजाज्ञा उलंघन अपराध है, सोचकर बहुत से लोगों ने प्राचार्य श्री के उपदेश में जाना बन्द कर दिया।
उधर, लोकमत को अनुकूल बनाकर 'देवी की यात्रा' महोत्सव को सफल बनाने के प्रयत्न में माणिकदेव जी-जान से प्रयत्न कर रहा था । भाद्रपद मास समाप्त हुा । आचार्य श्री का उपदेश पर्याप्त लोगों का हृदय परिवर्तन कर चुका था। शनैः शनैः कृष्णपक्ष पूरा हुआ । कल अश्विन सूदी एकम आने वाली है । इसी दिन से कालीदेवी का उत्सव भी प्रारम्भ होने वाला है । लोगों के हृदय धड़क रहे थे । मल्लिपुर के हजारों लोग चिन्तातर थे कि "आचार्य श्री की प्रतिज्ञा किस प्रकार पूर्ण होगी ?" फिर, "देवी के प्रकोप से मल्लिपुर पर क्या संकट आयेगा” ? इसको भी कुछ लोगों को घबराहट हो रही थी।
पद्मनाभ राजा की ओर से भी हरसाल की भांति इस वर्ष भी तैयारी चालू थी । माणिकदेव की आज्ञा प्रमाण ही वह सब यथायोग्य कार्य करता