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अहिंसा की विजय]
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सभी को भयङ्कर कष्ट उठाना पड़ेगा : यही विचार कर मैं तुम्हें वहाँ जाने से रोकता हूं। मेरा और कोई भाव नहीं।'
पिता के मुख से निकले शब्द सुन कर मृगावती कुछ म्लान सी हो गई। यही नहीं उसे कुछ प्राश्चर्य भी हया । देवी के कोष का परिणाम क्या क्या होता है यह भी उसने अनेकों बार सुना था। अतः उसे भय लगा। परन्तु तो भी वह तुरन्त बोली
पिताजी ! प्रतिदिन हजारों लोग मुनिदर्शनों को जाते हैं, उनका उपदेश भी सुनते हैं, उन पर देवी का कोप क्यों नहीं हुआ ? किसी भी साधु का उपदेश सुनने से देवी के कोपका कारण या है ? क्यों देवी रूष्ट होवे ? मुझे यह नहीं पटता । मैं उस साध के भी दर्शन करूंगी और पहाड़ पर भी जाऊंगी।" इस प्रकार गाल फुलाकर मृगावती लाडपने से बोली ।
मृमावती का यह रोष भरा भोला, दुलार से युक्त उत्तर सुनकर हर दिन के समान अाज पद्मनाभ हंसे नहीं, और न उसके विपरीत उस पर चिडचिडाहट या मधुर काप ही दिखाया वे एक-दम आँखें फाडकर लालतातें होकर बोले
मगावतो, इस समय तुम कोई बिल्कुल नादान बच्ची नहीं हो। प्रत्येक बात का हरू पकडना यही तुझे मालम होता है ? नग्न साधु का उपदेश सुनने से देवो का कोप होगा या नहीं यह तुझे आज ही समझ में आ सकेगा क्या ? बड़े प्रादमी की बात पर कुछ ता विश्वास करना चाहिए? जा, यदि तेरी इच्छा ही है तो मात्र पहाड पर जाकर प्रा इस प्रकार कह फर राजा ने अपनी दृष्टि दूसरी ओर फेर ली।"
राजा के इस प्रकार रूखे जवाब से मृगावती कुछ घबरा गई । क्योंकि राजा कभी भी इस प्रकार कोप से उससे नहीं बोले थे । वह अधिक समय बहाँ नहीं ठहरी, शीघ्र ही उतनी मात्र आज्ञा लेकर चट पट रणवास में चली गई अर्थात् अन्तर्गह में मां के पास गई और सभी वृतान्त अपनी माता को सुना दिया।
उस दिन दोपहर को मुगावती अपनी माता के साथ रथ में सवार हो मन्दार पर्वत पर पूजा देखने को जिनमन्दिर जाने को निकली । प्रतिदिन देवी के मन्दिर को ओर जाने वाले घोड़ों को आज पहाड की ओर 'धुमाना पड़ा। थोडे ही समय में रथ पहाड की तलहटी में पहुँचा, वहीं से पहाड़ पर चढ़ने