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अहिंसा की विजय कर्णदेव की मुनिभक्ति प्रगाढ थी। परन्तु बद्धावस्था अधिक होने से वे तीवा. कांक्षा रहने पर भी दर्शनों को नहीं आ सके । आचार्य अमरचन्द्र का चातु
सि मल्लिपुर में हो रहा है । यह जान कर ही उन्हें मुनिदर्शन को तीद्राकांक्षा थी उसी की पूर्ति के लिये उन्होंने अपने पुत्र महेन्द्र को मुद्दाम भेजा था। महा पर्युषण पर्व में मुनिराज दर्शन--गुरु दर्शन करना मूल हेतू था इसके अतिरिक्त कार्गदेव ने मुनिराज से एक विनती करने को युवराज को भेजा था।
मल्लिपुर और चम्पा नगर दोनों राज्य बहुत ही पास-पास थे । दोनों राज्यों में विशेष कोई बैर-विरोध नहीं था और न ही प्रेम ही था। मल्लिपुर के राजा ने कालीमाता का मन्दिर बनवा कर हिंसा का जो प्रचार-प्रसार किया था वह कर्णदेव को कतई पसन्द नहीं था। जिस समय उसे यह विदित हुआ कि अमरचन्द्र महाराज का चातुर्मास मल्लिपुर में होने जा रहा है तो उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ। कारण कि कालीदेवी का मन्दिर और आचार्य श्री का निवासस्थान इसमें कोई अधिक दूरी नहीं थी । बलि का काण्ड वहां निरन्तर चलता ही रहता था न ! फिर मल्लिपूर के राजा की भांति वहां की प्रजा भी कालीमाता की परम भक्त हो गयी थी, इससे उसे बहुत चिन्ता थी कि प्राचार्य धो को चर्या किस प्रकार अन्त तक निभ सकेगी। यही नहीं देवी की वार्षिक यात्रा भी आश्विन महीने में ही होती थी। उस समय हजारों मूक प्राणियों को ली चढती थी। उसप्राणी संहार काल में आचार्य श्री का मल्लिपुर में रहना संभव नहीं, यह सोचकर उसने विचारा कि पर्व पूरा होते ही महाराज को चम्पा नगर में ले आना चाहिये । भाद्रपद मास समाप्त होते ही गुरुदेव मल्लिपुर से विहार कर चम्पा नगर पधारें यह प्रार्थना करने को ही कर्णदेव राजा ने अपने सुपुत्र महेन्द्र को भेजा था । जैनमुनि-साधु चातुर्मास में स्थान परिवर्तन नहीं करते यह करणदेव को विदित न हो यह बात नहीं थी। वह जानता था । तो भी इस प्रसंग में भाचार्य श्री को विकट समस्या का सामना किस प्रकार करना होगा यह समझने समझाने को ही उन्होंने अपने पुत्र को भेजा था ।
वराज महेन्द्र ने यह सम्पूर्ण वीभत्स दृश्य सम्बन्धी समाचार आचार्य श्री को समझाया और संकट काल का उल्लेख करते हुए, भाद्रपद मास पूर्ण होते ही चम्पानगर बिहार करने की प्रार्थना की थी । परन्तु महाराज ने तो स्वयं जान-बझ कर ही वहाँ चातुर्मास किया था। अत: