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[ अहिंसा की विजय
स्रोत उमड पडा । प्राचार्य श्री की प्रभावी वाणी ने उन्हें समझाया कि धर्म अहिंसा ही है। इसका कितना महत्त्व है जन-जन के हृदय में अकिंत कर दिया । फलतः उनका धर्मपरिवर्तन उन्हें कितना घातक है, दुःखद और विप रीत है यह उन्हें स्वयं विदित होने लगा । हमारा कितना भयंकर पतन हुआ यह जानकर उन्हें धर्म भ्रष्ट होने का पश्चात्ताप होने लगा । गुरु भक्ति द होने लगी उसी प्रकार जिनेन्द्रभक्ति भी जाग्रत हो गई। इन गुरुदेव का प्रभाव वृद्धिंगत होता हुआ देखकर ही माणिक देव ने देवो का झूठा सन्देश राजा को दिया था। नया सन्देश बताकर उसे सावधान किया था क्योंकि राजा ने पुन: जैनधर्म-अहिंसा धर्म स्वीकार कर लिया तो उसका दिवाला निकल जायेगा, उसकी दाल नहीं गलेगी, यह उसे भय था | भोले लोगों को मिथ्या धर्म में फंसाकर और मनमाना आचरण कर सुख भोग निरत हुए उस पुरोहित को जैनमुनी एक भयंकर शत्रु प्रतीत होते थे । इसीलिए यह नवीन अंकुर जमने न पाये इसके पूर्व ही उसका समूल नाश करना चाहिए इसी अभिप्राय से माणिक देव ने यह सारी कारस्थानी रची थी। क्योंकि राजा मुनिराज के पास गया तो अछूता नहीं रह सकेगा ।
देवी की सामर्थ्य पर राजा का पूर्ण विश्वास है यह पुरोहित को भले प्रकार अवगत था । इसीलिए उसने सोचा था कि अपने ऊपर प्राते संकट का निमित्त कारण मुनी को राजा शीघ्र ही राज्य से बाहर निकाल कर ही रहेगा ऐसा उसे पूर्ण विश्वास था । परन्तु जैन दिगम्बर वीतरागी साधु प्राण जाने पर भी चातुर्मास स्थापित स्थान से जा नहीं सकते, यह उस बेचारे, अज्ञानी, स्वार्थान् को क्या पता था । होता भी कैसे ?
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धर्म हिंसा में नहीं, श्रहिंसा में है ।