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एकविंशं पर्व हिंसानन्दमृषानन्दस्तेयसंरक्षणात्मकम् । षष्ठात्तु तद्गुणस्थानात् प्राक् पञ्चगुणभूमिकम् ॥४३॥ प्रकृष्टतरदुर्लेश्यात्रयोपो बलवृंहितम् । अन्तर्मुहूर्तकालोत्थं पूर्ववद्भाव इप्यते ॥४४॥ वधबन्धामि संधानमङ्गच्छेदोपतापने । 'दण्डपारुष्यमित्यादि हिंसानन्दः स्मृतो बुधैः ॥४५॥ हिंसानन्दं समाधाय हिंस्रः प्राणिषु निघृणः । हिनस्त्यात्मानमेव प्राक् पश्चाद् हन्यान्न वा परान् ॥४६ सिक्यमत्स्यः किलैकोऽसौ स्वयम्भूरमणाम्बुधौ। महामत्स्यसमान्दोषानवाप स्मृतिदोषतः ॥४७॥ पुरा किलारविन्दाख्यः प्रख्यातः खचराधिपः । रुधिरस्नानरौद्राभिसंधिः श्वाश्री विवेश सः ॥४८॥ अनानृशंस्यं हिंसोपकरणादानतत्कथाः । निसर्गहिनता चेति लिङ्गान्यस्य स्मृतानि वै ॥४६॥ मृषानन्दो मृषावादैरतिसन्धानचिन्तनम्"। वाक्पारुष्यादिलिङ्गं तद् द्वितीयं रौद्रमिष्यते ॥५०॥ है ऐसे पुरुषमें जो ध्यान होता है उसे रौद्रध्यान कहते हैं यह रौद्रध्यान भी चार प्रकारका होता है ॥४२॥ हिंसानन्द अर्थात् हिंसामें आनन्द मानना, मृषानन्द अर्थात् झूठ बोलने में आनन्द मानना, स्तेयानन्द अर्थात् चोरी करने में आनन्द मानना और संरक्षणानन्द अर्थात् परिग्रहकी रक्षामें ही रात-दिन लगा रहकर आनन्द मानना ये रौद्रध्यानके चार भेद हैं। यह ध्यान छठे गुणस्थानके पहले-पहले पाँच गुणस्थानोंमें होता है ॥४३॥ यह रौद्रध्यान अत्यन्त अशुभ, कृष्ण आदि तीन खोटी लेश्याओंके बलसे उत्पन्न होता है, अन्तर्मुहूर्त कालतक रहता है और पहले आर्तध्यानके समान इसका क्षायोपशमिक भाव होता है।॥४४॥ मारने और बाँधने आदिकी इच्छा रखना, अंग-उपांगोंको छेदना, सन्ताप देना तथा कठोर दण्ड देना आदिको विद्वान् लोग हिंसानन्द नामका आर्तध्यान कहते हैं ॥४५॥ जीवोंपर दया न करनेवाला हिंसक पुरुष हिंसानन्द नामके रौद्रध्यानको धारण कर पहले अपने-आपका घात करता है पीछे अन्य जीवोंका घात करे अथवा न करे। भावार्थ-अन्य जीवोंका मारा जाना उनके आयुं कर्मके अधीन है परन्तु मारनेका संकल्प करनेवाला हिंसक पुरुष तीव्र कषाय उत्पन्न होनेसे अपने आत्माकी हिंसा अवश्य कर लेता है अर्थात् अपने क्षमा आदि गुणोंको नष्ट कर भाव हिंसाका अपराधी अवश्य हो जाता है॥४६॥ स्वयंभरमण समदमें जो तन्दल: छोटा मत्स्य रहता है वह केवल स्मृतिदोषसे ही महामत्स्यके समान दोपोंको प्राप्त होता है । भावार्थ-राघव मत्स्यके कानमें जो तन्दुल मत्स्य रहता है वह यद्यपि जीवोंकी हिंसा नहीं कर पाता है केवल पड़े मत्स्यके मुखविपरमें आये हुए जीवोंको देखकर उसके मनमें उन्हें मारनेका भाव उत्पन्न होता है तथापि वह उस भाव-हिंसाके कारण मरकर राघव मत्स्यके समान ही सातवें नरकमें जाता है॥४७॥ इसी प्रकार पूर्वकालमें अरविन्द नामका प्रसिद्ध विद्याधर केवल रुधिर में स्नान करने रूप रौद्र ध्यानसे ही नरक गया था ॥४८॥ कर होना, हिंसाके उपकरण तलवार आदिको धारण करना, हिंसाकी ही कथा करना और स्वभावसे ही हिंसक होना ये हिंसानन्द रौद्रध्यानके चिह्न माने गये हैं ॥४९॥ झूठ बोलकर लोगोंको धोखा देनेका चिन्तवन करना सो मृषानन्द नामका दूसरा रौद्रध्यान है तथा कठोर वचन बोलना
१. सहाय । २. क्षायोपशमिकभावः । -भावमिष्यते ल०, म०, अ०, ५०, स०, इ०, द० । ३. अभिप्रायः । ४. बाह्यलिङ्गोपलक्षितवषबन्धादिनष्ठुर्यम् । ५. अवलम्ब्य । ६. अभिप्रायः । ७. नरकमतिम् । ८. अनुशंस्यं हि सो -ल०, म०, द०, प० । न नृशंसः अनुशंसः अनृशंसस्य भावः आनृशंस्यम् अनानृशंस्यम् , अक्रोर्यम् । 'नृशंसो घातुकः क्रूरः' इत्यर्थः । ९. स्वभावहिंसनशीलता । १०. रौद्रस्य । ११. अतिवन्धनम् । १२. ध्यानम् ।