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1. The first type of Ārta-Dhyāna is called Iṣṭa-Viyoga-ja, which arises from the sorrow caused by the absence of desired objects.
2. The second type is called Nidāna-Pratyay, which arises from the contemplation of the cause of the desired object not being obtained.
3. The third type is called Aniṣṭa-Samyoga-ja, which arises from the association with an undesirable object.
4. The fourth type is called Vedana-Upagamo-dbhava, which arises from the experience of pain.
5. The contemplation of the cause and the removal of pain is the subject matter of these four types of Ārta-Dhyāna.
6. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
7. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
8. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
9. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
10. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
11. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
12. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
13. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
14. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
15. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
16. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
17. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
18. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
19. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
20. This Ārta-Dhyāna is characterized by the contemplation of the cause and the removal of pain.
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आदिपुराणम् ऋते विना मनोज्ञार्थाद् भवमिष्टवियोगजम् । निदान प्रत्यवं चैवमप्राप्तेष्टार्थचिन्तनात् ॥३४॥ ऋतेऽप्यु पगतंऽनिष्टे भवमार्त द्वितीयकम् । भवेच्चतुर्थमप्येवं वेदनोपगमोनवम् ॥३५॥ प्राप्त्यप्राप्त्योमनोज्ञेतरार्थयोः स्मृतियोजने । निदानवेदना पायविषये चानुचिन्तन ॥३६॥ इत्युक्तमार्तसात्मिचिन्त्यं ध्यानं चतुर्विधम् । प्रमादाधिष्ठितं तत्तु पगुमस्थानसंश्रितम् ॥३७॥ अप्रशस्ततम लेश्यात्रयमाश्रित्य जृम्भितम् । अन्तर्मुहूतकालं "तदप्रशस्तावलम्बनम् ॥३०॥ क्षायोपशमिकोऽस्य स्याद् मावस्तिर्यग्गतिः फलम् । तस्माद् दुनिमाताख्यं हेयं श्रेयोऽर्थिनानिदम्॥३९॥ मूर्छा कौशील्य कैनाश्य कौसीद्या"न्यतिगृध्नुता । भयोद्धे गानुशोकाच लिङ्गा न्यात स्मृतानि वै ॥ बाह्यं च लिङ्गमार्तस्य गात्रग्ला निर्विवर्णता । हस्तन्यस्तकपोलस्वं' साश्रुतान्यच्च तादृशम् ॥४१॥
प्राणिनां रोदनाद रुद्रः ऋरः सत्त्वेषु निघृणः । पुमांस्तत्र भवं रौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम् ॥४२॥ होता है वह चौथा आर्तध्यान कहलाता है ।।३३।। इष्ट वस्तुओंके बिना होनेवाले दुःखके समय जो ध्यान होता है वह इष्टवियोगज नामका पहला आर्तध्यान कहलाता है, इसी प्रकार प्राप्त नहीं हुए इष्ट पदार्थ के चिन्लवनसे जो आतध्यान होता है वह निदानप्रत्यय नामका तीसरा आर्तध्यान कहलाता है ॥३४॥ अनिष्ट वस्तुके संयोगके होनेपर जो ध्यान होता है वह अनिष्टसंयोगज नामका तीसरा आर्तध्यान कहलाता है और वेदना उत्पन्न होनेपर जो ध्यान होता है वह वेदनोपगमोद्भव नामका चौथा आर्तध्यान कहलाता है ॥३५।। इट बस्तुको प्राप्तिके लिए, अनिष्ट वस्तुको अप्राप्तिके लिए, भोगोपभोगकी इच्छाके लिए और वेदना दूर करने के लिए जो बार-बार चिन्तवन किया जाता है उसी समय ऊपर कहा हुआ चार प्रकारका आर्तध्यान होता है ।।३।। इस प्रकार आत अर्थात् पीड़ित आत्मावाले जीवोंके द्वारा चिन्तवन करने योग्य चार प्रकारके आर्तध्यानका निरूपण किया। यह कपाय आदि प्रमादसे अधिष्ठित होता हे और प्रमत्तसंयत नामक छठवें गुणस्थान तक होता है।॥३७॥ यह चारों प्रकारका आर्तध्यान अत्यन्त अशुभ, कृष्ण, नील और कापोत लेझ्याका आश्रय कर उत्पन्न होता है, इसका काल अन्तर्मुहूर्त है और आलम्बन अशुभ है ॥३८॥ इस आर्तध्यानमें भायोपशमिक भाव होता है और तिर्यञ्च गति इसका फल है इसलिए यह आर्त नामका खोटा ध्यान कल्याण चाहनेवाले पुरुषों-द्वारा छोड़ने योग्य है ॥३९॥ परिग्रहमें अत्यन्त आसक्त होना, कुशील रूप प्रवृत्ति करना, कृपणता करना, व्याज लेकर आजीविका करना, अत्यन्त लोभ करना, भय करना, उद्वेग करना और अतिशय शोक करना ये आर्तध्यानके चिह्न हैं ॥४०॥ इसी प्रकार शरीरका क्षीण हो जाना, शरीरकी कान्ति नष्ट हो जाना, हाथोंपर कपोल रखकर पश्चात्ताप करना, आँसू डालना तथा इसी प्रकार और और भी अनेक कार्य आर्नध्यानके बाव चिह्न कहलाते हैं ॥४१॥ इस प्रकार आर्तध्यानका वर्णन पूर्ण हुआ, अब रौद्र ध्यानका निरूपण करते हैं-जो पुरुष प्राणियोंको रुलाता है वह रुद्र क्रूर अथवा सब जीत्रों में निर्दय कहलाता
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१. निदानहेतुकम् । २. अनिष्टे वस्तुनि समागते इति भावः । ह्यपगते ल०, म० । ३. द्वितीयाध्यानोक्तप्रकारेण। ४. मनोज्ञार्थप्राप्ती। स्मृतियोजनम् । ५. निदानं च वेदनापायश्च निदानवेदनापायौ निदानवेदनापायो विषयो ययोरते निदानवेदनापायांवपर्य । ६. निदानानुचिन्तनं वेदनापायानुचिन्तनमित्यर्थः । ७. ध्यानम् । ८. पड्गुणस्थानसंथितमित्यनेन किस्वामिकमिति पदं व्याख्यातम् । ९. लेश्यात्रयमाश्रित्य जम्भितमित्यनेन बलाधानमुक्तम् । १०. अप्रशस्तपरिणामावलम्बनम् । अनेन किमालम्बनमिति पदं प्रोक्तम् । ११. परिग्रहः । १२. कुशीलत्व । १३. लुब्धत्व अथवा कृतघ्नत्व । १४. आलस्य । १५. अत्यभिलापिता। १६. इष्टवियोगेषु विक्लवभाव एवोद्वेगः । चित्तचलन । १७. चिह्नानि । १८. गात्रम्लानि: ट० । शरीरपोषणम् । १९. याप्पवारिसहितम् । २०. रोदनकारित्वात् ।