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________________ ४३९ एकोनविंशं पर्व सुरयुवतिसमाजस्यास्य च स्त्रीजनस्य प्रकृति कृतमियत् स्यादन्तर ब्यक्तरूपम् । *स्तिमितनयनमैन्द्रं स्त्रैणमेतत्तु लीलावलितललितलोलापाङ्गवीक्षाविलासम् ॥१६३॥ वसन्ततिलकम् अत्रायमुन्मदमधुव्रतसेव्यमान-गण्डस्थलो गजपतिर्वनमाजिहानः । दृष्ट्वा हिरण्मयतटीगिरिमतुरस्य-दावानलप्रतिभयाई वनमुज्जहाति ॥१६॥ - जलधरमाला भन्नानीलं मणितटमुच्चैः पश्यन् मेघाशकी नटति कलापी' हृष्टः । "केकाः कुर्वन्विरचितबर्हाटोपो लोकस्तत्त्वं गणयति नार्थी मूढः ॥१६५॥ पुष्पिताना सरसि कलममी रुवन्ति हंसास्तरुषु च कोकिलषट्पदाः स्वनन्ति । फलनमितशिखाश्च पादपौधाः चल विटपै(वमालयन्स्यनाम् ॥१६६॥ स्वागता मन्थर" व्रजति काननमध्यादेष वाजिवदनः"सहकान्तः । संस्पृशन् स्तनतट दयितायास्तसुखानुभवमीलितनेत्रः ॥१६॥ एष सिंहचमरीमृगकोटीः सानुमिवहति निर्मलमूर्तिः । सन्ततीरिव यशोविसरस्य स्वस्य लोप्रधवला रजतादिः ॥१६॥ रहता है ॥१६२॥ देवांगनाओं तथा इस पर्वतपर रहनेवाली स्त्रियोंके बीच प्रकृतिके द्वारा किया हुआ स्पष्ट दीखनेवाला केवल इतना ही अन्तर है कि देवांगनाओंके नेत्र टिमकारसे रहित होते हैं और यहाँको स्त्रियोंके नेत्र लीलासे कुछ-कुछ टेढ़े सुन्दर और चंचल कटाक्षोंके विलाससे सहित होते हैं ॥१६३।। इधर देखो, जिसके गण्डस्थलपर अनेक उन्मत्त भ्रमर मँडरा रहे हैं ऐसा यह वनमें प्रवेश करता हुआ हाथी इस गिरिराजके सुवर्णमय तटोंको देखकर दावानलके डरसे वनको छोड़ रहा है ।।१६४।। इधर, नीलमणिके बने हुए ऊँचे किनारेको देखता हुआ यह मयूर मेषकी आशंकासे हर्षित हो मधुर शब्द करता हुआ पूँछ उठाकर नृत्य कर रहा है सो ठीक ही है क्योंकि मूर्ख स्वार्थी जन सचाईका विचार नहीं करते हैं ॥१६५।। इधर तालाबोंमें ये हंस मधुर शब्द कर रहे हैं और वृक्षोंपर कोयल तथा भ्रमर शब्द कर रहे हैं । इधर फलोंके बोझसे जिनकी शाखाएँ नीचेकी ओर झुक गयी हैं ऐसे ये वृक्ष अपनी हिलती हुई शाखाओंसे ऐसे मालूम होते हैं मानो कामदेवको ही बुला रहे हों॥१६६।। इधर अपनी स्त्रीके स्तन-तटका स्पर्श करता हुआ और उस सुखके अनुभवसे कुछ-कुछ नेत्रोंको बन्द करता हुआ यह किन्नर अपनी स्त्रीके साथ-साथ वनके मध्यभागसे धीरे-धीरे जा रहा है ।।१६७।। यह विजयार्ध पर्वत अपने शिखरोंपर निर्मल शरीरवाले करोड़ों सिंह, करोड़ों चमरी गायें और करोड़ों मृगोंको धारण कर रहा है और उन सबसे ऐसा मालूम होता है मानो लोध्रवृक्षके समान सफेद अपने यशसमूह १. विजयासंबन्धिनः। २. स्वभावविहितम् । ३. भेदः। ४. स्थिरदृष्टि । ५. इन्द्रसंबन्धिस्त्रीसमूहः । ६. एतत्स्त्रणम् विद्याधरसंबन्धी स्त्रीसमूहः । ७. आगच्छन् । 'ओहाङ् गतौ' इति धातुः। ८. भीतेः। ९. त्यजति । १०. मयूरः । ११. ध्वनीः । केका अ०। १२. स्वरूपम् । १३. चलविटपा इत्यपि क्वचित् । बलशाखाः । १४. मन्दम् । १५. किन्नरः । 'स्यात् किन्नरः किंपुरुषस्तुरंगवदनो मयुः' इत्यभिधानात् । १६. स्त्रीसहितः। १७. स्तनस्पर्शनसुख । १८. (पुष्पविशेष) परागः ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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