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437 Nineteenth Chapter The Maharshiņi Uddhata, with the wind blowing high, is adorned with the pollen of the Asana trees, which is scattered like golden umbrellas. (152) These are the marks of the elephants, whose temples are rubbed against the rocks, and whose mad water flows down, leaving behind broken trees and rocks. (153) Here, in the forest, the deer sniff the grass, their nostrils flared, seeking the best grass to eat. (154) The deer, attracted by the different types of jewels found on the different shores of this mountain, take on the appearance of those jewels. (155) This group of deer, mistaking the green rays of the emerald jewels for grass, eat them, but their desire is not fulfilled. (156)
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________________ ४३७ एकोनविंश पर्व महर्षिणी उद्धतः पहचरयेण वायुनोच्चैरा बभ्रुर्नमसि परिष्फुरबनस्पः । भस्याटेपतटमासनः परागः संधत्ते कनककृतातपत्रलोलाम् ॥१५२॥ वसन्ततिलकम् एताः क्षरन्मदजला विकगण्डभित्तिकण्ड्यनग्यति करादितगण्डशैकाः । "मग्नद्रमास्तटभुवो धरौँ भृतोऽस्य संसूचयन्ति पदवीर्वनवारणानाम् ॥१५३॥ भुजङ्गप्रयातम् इहामी मृगौषा वनान्तस्थलान्ते स्फुर घोणमाघ्राय तृण्यामगण्याम् । यदेवात्र तृण्यं" तृणं यच्च रुष्यं तदेवात्र कुन्जे जिध"सन्त्यमुस्मिन् ॥१५४॥ उपजातिः यद्यत्तटं यद्विधरत्नजास्या संप्राप्तनिर्माणमिहाचलेन्द्र। तत्सस्समासाद्य मृगास्तदामा मजन्ति जात्यन्तरतामिवेताः ॥१५५॥ उपेन्द्रवजा हरि न्मणीनां विततान् मयूलान् तृदा स्वास्थाच मृगीगणोऽयम् । भलन्धकामस्तदुपातमाजि तृणानि "सस्यान्यपि नोपयुक्ते ॥१५॥ ॥१५१॥ इधर देखो, इस पर्वतके किनारेके समीप लगे हुए असन जातिके वृक्षोंका बहुत-सा पीले रंगका पराग तीव्र वेगवाले वायुके द्वारा ऊँचा उड़-उड़कर आकाशमें छाया हुआ है और सुवर्णके बने हुए छत्रको शोभा धारण कर रहा है ॥१५२॥ इधर, झरते हुए मदजलसे भरे हुए हाथियोंके गण्ड-स्थल खुजलानेसे जिनकी छोटी-छोटी चट्टानें अस्त-व्यस्त हो गयी हैं और वृक्ष टूट गये हैं ऐसी इस पर्वतके किनारेकी भूमियाँ मदोन्मत्त हाथियोंका मार्ग सूचित कर रही हैं । भावार्थ-चट्टानों और घृक्षोंको- टूटा-फूटा हुआ देखनेसे मालूम होता है कि यहाँसे अच्छे-अच्छे मदोन्मत्त हाथी अवश्य ही आते-जाते होंगे ॥१५३।। इधर देखो, इस पर्वतके लतागृहोंमें और वनके भीतरी प्रदेशोंमें ये हरिणोंके समूह नाक फुला-फुलाकर बहुत-से घासके समूहको सूघते हैं और उसमें जो घास अच्छी जान पड़ती है उसे ही खाना चाहते हैं ॥१५४|| इधर देखो, इस पर्वतका जो-जो किनारा जिस-जिस प्रकारके रत्नोंका बना हुआ है ये हरिण आदि पशु उन-उन किनारेपर जाकर उसी उसी प्रकारकी कान्तिको प्राप्त हो जाते हैं और ऐसे मालूम होने लगते हैं मानो इन्होंने किसी दूसरी ही जातिका रूप धारण कर लिया हो ॥१५५॥ इधर, यह हरिणियोंका समूह हरे रंगके मणियोंकी फैली हुई किरणोंको घास समझकर खा रहा है परन्तु उससे उसका मनोरथ पूर्ण नहीं होता इसलिए धोखा खाकर पास हीमें लगी हुई सच १. कम्पितः २. निष्ठुरवेगेण । ३. आपिङ्गलः । 'बभ्रः स्यात् पिङ्गलेऽपि च' इत्यभिधानात् । ४. असनस्य सम्बन्धो। ५. आद्रित । ६. कपोलस्थलनिघर्षणब्याज । ७. रुग्ण इति क्वचित् । ८. गिरेः । ... ९. स्फुरन्नासिकं यथा भवति तथा । १०. तणसंहतिम् । ११. भक्षणीयम् । १२. अतुमिच्छन्ति । १३. प्राप्ताः । मिवैते प०, म०, ल० । १४. मरकतरत्नाम् । १५. तृणबुध्या । १६. तन्मरकतशिलासमीपं भजन्तीति तदु- . पान्तभाजि । १७. सत्यस्वरूपाणि ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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