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________________ एकोनविंशं पर्व पुराणीन्द्रपुराणीव सौधानि 'स्वर्विमानतः । प्रति प्रतिपुरं व्यस्त विभवं प्रतिबैभवम् ॥ ८८ ॥ नराः सुरकुमारामा नार्यश्चाप्सरसां समाः । सर्वर्तुविषयान् भोगान् भुम्जतेऽमी यथोचितम् ॥८९॥ द्रुतविलम्बितच्छन्दः इति पुराणि पुराणकवीशिनामपि वचोभिरशक्यनुतीम्ययम् । दधदधित्यकया' गिरिरुच्चकैः युवसतेः श्रियमाह्वयते ध्रुवम् ॥९०॥ गिरिरयं गुरुमिः शिखरैर्दिवं प्रविपुलेन तलेन च भूतलम् । दधदुपान्त चरैः खचरोरगै: प्रथयति त्रिजगच्छ्रियमेकतः ॥ ९१ ॥ निधुवनानि' वनान्तलतालये मृदितपल्लवसंस्तरणाततैः । पिशुनयस्युपभोगसुगन्धिभिर्गिरिश्यं गगनेचरयोषिताम् ॥९२॥ इह सुरासुर किन्नरपन्नगा नियतमस्य तटेषु महीभृतः । प्रतिवसन्ति समं प्रमदाजनः 'स्वरुचितैरुचितैश्च रतोत्सबैः ॥९३॥ 'सुरसिषेविषितेषु निषेदुषीः " सरिदुपाम्तलताभवनेष्वमूः । प्रणयकोप विजिह्ममुखीर्वधूरनुनयन्ति सदात्र नभश्चराः ॥९४॥ ४२७ ये नगर इन्द्रपुरीके समान हैं और बड़े-बड़े भवन स्वर्गके विमानोंके समान हैं । यहाँका प्रत्येक नगर शोभाकी अपेक्षा दूसरे नगरसे पृथक ही मालूम होता है तथा हरएक मगरका बैभव भी दूसरे नगरके वैभवकी अपेक्षा पृथक मालूम होता है अर्थात् यहाँ के नगर एकसे एक बढ़कर हैं ||८८|| यहाँ के मनुष्य देवकुमारोंके समान हैं और स्त्रियाँ अप्सराओंके तुल्य हैं। ये सभी स्त्री-पुरुष अपने-अपने योग्य छहों ऋतुओंके भोग भोगते हैं ॥ ८९ ॥ | इस प्रकार यह विजयार्ध पर्वत ऐसे-ऐसे श्रेष्ठ नगरोंको धारण कर रहा है कि बड़े-बड़े प्राचीन कवि भी अपने वचनों द्वारा जिनकी स्तुति नहीं कर सकते । इसके सिवाय यह पर्वत अपने ऊपरको उत्कृष्ट भूमि से ऐसा मालूम होता है मानो स्वर्गकी लक्ष्मीको ही बुला रहा हो ||२०|| यह पर्वत अपने बड़े-बड़े शिखरोंसे स्वर्गको धारण कर रहा है, अपने विस्तृत तलभागसे अधोलोकको धारण कर रहा है और समीपमें ही घूमनेवाले विद्याधर तथा धरणेन्द्रोंसे मध्यलोककी शोभा धारण कर रहा है। इस प्रकार यह एक ही जगह तीनों की शोभा प्रकट कर रहा है || ९१|| जिनमें कोमल पल्लबोंके बिछौने बिछे हुए हैं और जो उपभोगके योग्य चन्दन, कपूर आदि से सुगन्धित है । वनके मध्य में बने हुए लता - गृहोंसे यह पर्वत विद्याधरियोंकी रतिक्रीडाको प्रकट कर रहा है ||१२|| इस पर्वत के किनारोंपर देव, असुरकुमार, किन्नर और नागकुमार आदि देव अपनी-अपनी स्त्रियोंके साथ अपनेको अच्छे लगनेवाले तथा अपने-अपने योग्य संभोग आदिका उत्सव करते हुए नियमसे निवास करते रहते हैं ||१३|| इस पर्वतपर देवोंके सेवन करने योग्य नदियोंके किनारे बने हुए लता-गृहों में बैठी हुई तथा प्रणय कोपसे जिनके मुख कुछ मलिन अथवा कुटिल हो रहे हैं ऐसी अपनी स्त्रियोंको विद्याधर लोग सदा मनाते रहते हैं १. स्वर्गविमानानां प्रतिनिधयः । २ व्यत्यासित विभवप्रतिवैभवम् । एकस्मिन्नगरे यो विभवो भवत्यन्यस्मिन्नगरे तद्विभवाधिकं प्रतिवैभवमस्तीत्यर्थः । ३. श्रेण्या । ४. स्वर्गावासलक्ष्मीम् । ५. व्यवायानि तानीत्यर्थः । ६. मदित किसलयशय्या विस्तृतैः । ७. उपभोगयोग्यश्रीखण्डकर्पूरादिसुरभिभिः । ८. आत्मनामभोष्टैः । ९. अमरैर्निषेवितुमिष्टेप । १०. स्थितवतीः । ११. वक्रः ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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