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________________ ४२८ आदिपुराणम् इह मृणालनियोजित बन्धनैरिह 'वतं ससरोरुहताडनैः । ॥९६॥ इह मुखासवसेचनकैः प्रियान् विमुखयन्ति रते कुपिताः स्त्रियः ॥ ९५ ॥ क्वचिदनङ्गनिवेश इवामरील लित नर्तन गीतमनोहरः । मदकलध्वनिकोकिल डिण्डिमै : क्वचिदनङ्गजयोत्सवविभ्रमः * क्वचिदुपोढपयः कणशीतलैः धुतसरोजवनैः पवनैः सुखः । मदकलालि कुलाकुलपादपैरुप व नैरतिरम्यतरः क्वचित् ॥९७॥ क्वचिदनेक पयूनिपेचितः क्वचिदनेक पतरपतगाततः । क्वचिदनेक परार्थ्यमणिद्युतिच्छुरितराज तस्रानुबिराजितः ॥९८॥ क्वचिदकाण्ड' 'विनर्तित के किभिर्धन निभैर्ह रिनी लत टैर्युतः । Fafesent' 'विप्लवैः परिगतोऽरुणरत्नशिलातटैः २ ॥९९॥ क्वचन काञ्चनमित्तिपराहते" रविकरैरभिदीपितकाननः । नभसि संचरतां जनयत्ययं गिरिरुदीर्ण दवानलसंशयम् ॥१००॥ יר इति विशेषपरम्परयान्वहं परिगतो गिरिरेष सुरेशिनाम् । अपि मनः " परिवर्धित कौतुकं वितनुते किमुताम्बरचारिणाम् ॥१०१॥ प्रसन्न करते रहते हैं ॥९४|| इधर ये कुपित हुई स्त्रियाँ अपने पतियोंको मृणाल के बन्धनोंसे बाँधकर रति-क्रीडासे विमुख कर रही हैं, इधर कानोंके आभूषण-स्वरूप कमलोंसे ताडना कर के ही विमुख कर रही हैं और इधर मुखकी मदिरा ही थूककर उन्हें रतिक्रीडासे पराङ्मुख कर रही हैं ||१५|| यह पर्वत कहींपर देवांगनाओंके सुन्दर नृत्य और गीतोंसे मनोहर हो रहा है जिससे ऐसा जान पड़ता है मानो कामदेवका निवासस्थान ही हो और कहीं पर मदोन्मत्त कोलोंके मधुर शब्दरूपी नगाड़ोंसे युक्त हो रहा है जिससे ऐसा मालूम होता है मानो कामदेवके विजयोत्सवका विलास ही हो ||१६|| कहीं तो यह पर्वत जलके कणोंको धारण करनेसे शीतल और कमलवनोंको कम्पित करनेवाली वायुसे अतिशय सुखदायी मालूम होता है और कहीं मनोहर शब्द करते हुए भ्रमरोंसे व्याप्त वृक्षोंवाले बगीचोंसे अतिशय सुन्दर जान पड़ता है ॥९७॥ यह पर्वत कहीं तो हाथियोंके झुण्डसे सेवित हो रहा है, कहीं उड़ते हुए अनेक पक्षियोंसे व्याप्त हो रहा है और कहीं अनेक प्रकारके श्रेष्ठ मणियोंकी कान्तिसे व्याप्त चाँदी के शिखरों से सुशोभित हो रहा है ||१८|| यह पर्वत कहींपर नीलमणियां के बने हुए किनारोंसे सहित है इसके वे किनारे मेघके समान मालूम होते हैं जिससे उन्हें देखकर मयूर असमय में ही (वर्षा ऋतु के बिना ही ) नृत्य करने लगते हैं । और कहीं लाल-लाल रत्नोंकी शिलाओंसे युक्त है, इसकी वे रत्नशिलाएँ अकालमें ही प्रातःकालकी लालिमा फैला रही हैं ||१९|| कहीं पर सुवर्णमय दीवालोंपर पड़कर लौटती हुई सूर्यकी किरणोंसे इस पर्वतपरका वन अतिशय देदीप्यमान हो रहा हैं जिससे यह पर्वत आकाशमें चलनेवाले विद्याधरोंको दावानल लगाने का सन्देह उत्पन्न कर रहा है || १००|| इस प्रकार अनेक विशेषताओंसे सहित यह पर्वत रात-दिन इन्द्रोंके मनको भी बढ़ते हुए कौतुकसे युक्त करता रहता है अर्थात् क्रीडा करनेके लिए इन्द्रों १. कर्णपूर । २. मधुगण्डूषसेचनैः । ३. आश्रयः । ४. विलासः । ५. घृतः । ६. सुखकरः । ७. गजः । ८. विविधोद्गच्छत्पक्षिविस्तृतः । ९. विविधोत्कृष्ट रत्न कान्तिमिश्रित रजत मयनितम्बशोभितः । १०. अकाल । ११. उपः संबन्धिबालातपपूरैः । 'प्रातः, प्रत्यूषोऽहर्मुखं कल्यमुषः प्रत्युषसी अपि, इत्यभिधानात् । १२. शिलातलै: अ०, प०, म०, ल०, द० । १३. प्रत्युद्गतैरित्यर्थः । १४. उद्गत । १५. युतः । १६. अपि पुनः ल०, म० ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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